देश-दुनिया के इतिहास में 03 अप्रैल की तारीख तमाम अहम वजह से दर्ज है। भारतीय सेना के लिए यह महत्वपूर्ण तारीख है। इसी तारीख को 1914 में देश के पहले फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ का जन्म हुआ था। उनकी अगुआई में भारत ने 1971 के युद्ध में पाकिस्तान को करारी शिकस्त दी थी। तीन दिसंबर 1971 को पाकिस्तानी सेना ने भारत पर हमला किया था। भारत ने पाकिस्तान के हमले का ऐसा जवाब दिया कि 13 दिन में ही पाकिस्तान की सेना ने हथियार डाल दिए और पाकिस्तान के 90 हजार से भी ज्यादा सैनिकों ने आत्मसमर्पण कर दिया।
माना जाता है कि यह किसी युद्ध में हथियार डालने वाले सैनिकों की सबसे बड़ी संख्या है। 1971 के युद्ध में पाकिस्तान को भारी क्षति उठानी पड़ी और एक नए देश बांग्लादेश का जन्म हुआ। भारतीय सेना की इस यादगार विजय का श्रेय सैम मानेकशॉ को जाता है। मानेकशॉ के पिता डॉक्टर थे और वे खुद भी डॉक्टर बनना चाहते थे। मानेकशॉ डॉक्टरी पढ़ने के लिए इंग्लैंड जाना चाहते थे, लेकिन उनके पिता ने उन्हें ये कहकर इजाजत नहीं दी कि विदेश में अकेले रहने के लिए उनकी उम्र बहुत कम है।
इस बात से वे पिता से नाराज हो गए और एक तरह से उनके फैसले के खिलाफ विद्रोही तेवर अपनाते हुए आर्मी भर्ती की परीक्षा देकर सेना में शामिल हो गए। 1971 में तब की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी चाहती थीं कि अप्रैल महीने में ही भारत पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान बांग्लादेश) पर हमला कर दे, लेकिन मानेकशॉ ने ऐसा करने से साफ मना कर दिया। उन्होंने इंदिरा से कहा कि इस समय लड़ाई से हारने का खतरा रहेगा।
इसके बाद उन्होंने इंदिरा से युद्ध की तैयारी के लिए समय लिया और जंग के लिए सेना को तैयार करना शुरू कर दिया। आखिर में ये जंग अप्रैल के बजाय दिसंबर में हुई और भारत ने जीत हासिल की। दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान देश गुलाम था और भारतीय जवानों को भी अंग्रेजी सेना के लिए लड़ना पड़ता था। उस समय मानेकशॉ भी बर्मा में जापानी आर्मी के खिलाफ युद्ध के मैदान में थे। इस युद्ध के दौरान मानेकशॉ के शरीर में सात गोलियां लगी थीं और उनके बचने की उम्मीद काफी कम थीं, लेकिन डॉक्टरों ने उनका ऑपरेशन करके सारी गोलियां निकाल दीं और मानेकशॉ की जान बच गई।
1973 में सैम मानेकशॉ को फील्ड मार्शल बनाया गया। इस पद पर पहुंचने वाले वह देश के पहले सैन्य अधिकारी थे। उन्हें कई सम्मान प्राप्त हुए थे। 1972 में भारत सरकार ने उन्हें पद्म विभूषण से भी सम्मानित किया था। सेना प्रमुख के पद से रिटायर होने के बाद वे वेलिंगटन चले गए। वेलिंगटन में ही जून 2008 में 94 साल की आयु में उन्होंने आखिरी सांस ली।