इतिहास के पन्नों में 08 जुलाई : युवा तुर्क ने दुनिया को कहा- अलविदा

अलहदा शख्सियत और खास अंदाज-ए-बयां के साथ युवा तुर्क की पहचान रखने वाले चंद्रशेखर ऐसे राजनेता के रूप में याद किए जाते हैं जिन्होंने अपनी शर्तों पर राजनीति की। वे ऐसे नेता थे जो कभी राज्य या केंद्र में मंत्री नहीं रहे, सीधे प्रधानमंत्री बने। चंद्रशेखर ने अपने राजनीतिक सफर में ऐसी रेखा खींची जो समझौता किए बिना संघर्ष से जनतांत्रिक साध्यों तक पहुंचने को प्रेरित करती है।

17 अप्रैल 1927 को उत्तर प्रदेश के बलिया जिला के इब्राहिम पट्टी के किसान परिवार में पैदा हुए चंद्रशेखर का दिल्ली के अपोलो अस्पताल में 8 जुलाई 2007 को निधन हो गया था। पूर्व का ऑक्सफोर्ड कही जाने वाली इलाहाबाद विश्वविद्यालय से उन्होंने एमए की डिग्री ली। छात्र काल में ही वे समाजवादी राजनीति से सक्रिय रूप से जुड़ गए। उन्होंने 1955-56 में उप्र में राज्य प्रजा समाजवादी पार्टी के महासचिव का पद संभाला और 1962 में उत्तर प्रदेश से राज्यसभा के सदस्य बने। हालांकि 1965 में उन्होंने कांग्रेस का हाथ थामा और 1967 में कांग्रेस संसदीय दल के महासचिव चुने गए। हालांकि आपातकाल के दौरान चंद्रशेखर की बेबाकी के कारण कांग्रेस में रहते हुए भी उन्हें जेल में डाल दिया गया। चंद्रशेखर आपातकाल के खिलाफ देश भर में आंदोलन चला रहे लोकनायक जयप्रकाश नारायण के करीबी नेताओं में थे।

आपातकाल के बाद जनता पार्टी के रूप में विपक्षी दलों का गठबंधन जो बना, उसके शिल्पकारों में चंद्रशेखर की अहम भूमिका थी। वे जनता पार्टी के अध्यक्ष चुने गए। 1977 में पहली बार वे बलिया लोकसभा सीट से चुने गए। हालांकि जनता पार्टी जब सत्ता में आई तो उन्होंने मंत्री बनने से इनकार कर दिया।

उन्होंने देश के लोगों और उनकी समस्याओं को करीब से समझने के लिए 1983 में 6 जनवरी से 30 जून तक कन्याकुमारी से नई दिल्ली तक करीब 4260 किमी की पदयात्रा की। उन्होंने सामाजिक व राजनीतिक कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षित करने के लिए देश के विभिन्न भागों में 15 भारत यात्रा केंद्र स्थापित किए थे।

देश की राजनीतिक अस्थिरता के दौर में 1990 में उन्हें प्रधानमंत्री बनने का मौका मिला और राजीव गांधी की अगुवाई वाली कांग्रेस ने उनका समर्थन किया। लेकिन सात महीने बाद कांग्रेस के हाथों खेलने से इनकार करने पर राजीव गांधी ने समर्थन वापस ले लिया।

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