इतिहास के पन्नों में 08 जूनः भारतीय रंगमंच के गाथा पुरुष हैं हबीब तनवीर

देश-दुनिया के इतिहास में 08 जून की तारीख तमाम अहम वजह से दर्ज है। यह तारीख भारत के रंगकर्म के लिए खास है। वैसे तो दुनिया एक रंगमंच है और यहां हर कोई अपनी भूमिका निभाने आया है। बहुत से लोग अपनी भूमिका अच्छे से निभा पाते हैं और उनका नाम इतिहास में दर्ज हो जाता है। इस रंगमंच के ऐसे ही एक फनकार थे-हबीब तनवीर।

मशहूर नाटककार, निर्देशक, कवि और अदाकार हबीब तनवीर 08 जून, 2009 को दुनिया के रंगमंच से विदा हुए थे। तनवीर के मशहूर नाटकों में आगरा बाजार और चरणदास चोर हैं। हबीब तनवीर ने पांच दशक की अपनी लंबी रंगमंच यात्रा में 100 से अधिक नाटकों का मंचन किया। शतरंज के मोहरे, लाला शोहरत राय, मिट्टी की गाड़ी, गांव का नाम ससुराल मोर नाम दामाद, पोंगा पंडित, द ब्रोकन ब्रिज, जहरीली हवा और राज रक्त उनके मशहूरों नाटकों में शुमार हैं। लंबी बीमारी के बाद उन्होंने भोपाल में 85 साल की आयु में दुनिया को अलविदा कहा था। आज बेशक वह हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन इस लोकधर्मी आधुनिक नाटककार का नाम और काम भारतीय रंगमंच में हमेशा जिंदा रहेगा। भारतीय रंगमंच में कोई दूसरा हबीब तनवीर नहीं होगा।

हबीब तनवीर का रंगमंच सिर्फ लोक रंगमंच नहीं था, बल्कि वह आधुनिक रंगमंच भी था। तनवीर आधुनिक दृष्टि वाले नाट्य निर्देशक थे। उनके पास इतिहास और सियासत की गहरी समझ थी। उनका लोककला में दिलचस्पी लेना और लोक मुहावरों में काम करना वैचारिक फैसला था। अपने इस फैसले पर वह आखिर तक कायम रहे। अपने नाटकों के माध्यम से वह दर्शकों का मनोरंजन करने के साथ-साथ उन्हें सम-सामायिक मुद्दों से भी जोड़ते रहे। हबीब तनवीर के हर नाटक में एक मकसद है, जो नाटक के अंदर अंतर्धारा की तरह बहता है। मसलन ‘आगरा बाजार’ में भाषा और अदब के जानिब कुलीन और जनवादी नजरियों के बीच कशमकश है, तो ‘चरनदास चोर’ सत्ता, प्रशासन और व्यवस्था पर सवाल उठाता है।

‘हिरमा की अमर कहानी’ और ‘देख रहे हैं नयन’ सियासी नाटक हैं, जो हर दौर में सामायिक रहेंगे। ‘बहादुर कलारिन’ में वह सामंतवाद पर वार करते हैं। नाटक ‘जिन लाहौर नहीं देख्या, वो जन्मा ही नईं’ हिन्दू-मुस्लिम सौहार्द पर और ‘पांगा पंडित’ समाज में व्याप्त छुआ-छूत को उजागर करता है। ‘मिट्टी की गाड़ी’ में वह समाज को लोकसत्ता से जोड़ने की ठोस कोशिश करते हैं। ऐसा नाटक जिसका कोई मकसद न हो उसके हबीब तनवीर खिलाफ थे। उनका मानना था,’क्लासिक ड्रामे चाहे यहां के हों या पश्चिम के, अगर उनमें समाज के प्रति जागरुकता के आसार और समझ को झंझोड़ने की ताकत नहीं हैं तो वो मात्र ऐशो-आराम को ही बढ़ावा देंगे।”

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *