देश-दुनिया के इतिहास में 12 सितंबर की तारीख तमाम अहम वजह से दर्ज है। यह तारीख सारागढ़ी की लड़ाई की गवाह है। भारत का कोई भी व्यक्ति इसे भूल नहीं सकता। बात 1897 की है। 12 सितंबर को इस लड़ाई में 36 सिख रेजिमेंट के 21 सिख सैनिकों ने 10 हजार से ज्यादा अफरीदी और ओरकजई आदिवासियों से लोहा लिया था। सिख सैनिकों का नेतृत्व हवलदार ईशर सिंह ने किया। वे आत्मसमर्पण करने के बजाय अपनी सारागढ़ी सेना चौकी की रक्षा करते हुए बलिदान हो गए। सारागढ़ी की लड़ाई को आत्म-बलिदान के इतिहास में सबसे अच्छे उदाहरणों में से एक माना जाता है।
इसकी पृष्ठभूमि यह है- सारागढ़ी पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वा प्रांत के कोहाट जिले में एक छोटा सा गांव था। यह समाना पर्वत शृंखला में स्थित था। ब्रिटिश भारतीय सेना के तहत 36 सिख रेजिमेंट की स्थापना 1894 में कर्नल जे. कुक ने की थी। समाना हिल्स क्षेत्र में अंग्रेजों और पश्तूनों के बीच संघर्ष चल रहा था। यह एक अस्थिर क्षेत्र था। आदिवासी पश्तून नियमित इस क्षेत्र में ब्रिटिश चौकियों पर हमला करते थे।
अंग्रेजों ने इस क्षेत्र के कुछ किलों पर नियंत्रण पाने के बाद उन्हें मजबूत करने का प्रयास किया। दो प्रमुख किले सुलेमान रेंज पर फोर्ट गुलिस्तान और समाना रेंज पर फोर्ट लॉकहार्ट थे। ये दोनों किले एक-दूसरे से दिखाई नहीं देते थे। इन दोनों किलों के बीच हेलियोग्राफिक संचार की सुविधा के लिए बीच में चट्टानी पहाड़ी पर एक चौकी स्थापित की गई। इसे सारागढ़ी पोस्ट कहा गया। हेलियोग्राफी ऐसी तकनीक थी जिसमें सूर्य के प्रकाश को परावर्तित करके संकेत भेजे जाते थे। सारागढ़ी पूरे क्षेत्र की रक्षा के लिए एक महत्वपूर्ण चौकी थी। इसमें एक छोटा ब्लॉक हाउस, चारों ओर से दीवार और सिग्नलिंग के लिए एक टावर शामिल था।
इस लड़ाई में 10 हजार पठानों से लोहा लेते हुए 21 सिख जवानों ने अपने प्राण न्योच्छावर कर दिए। अपने प्राणों की यह आहूति इन वीरों ने उस अंग्रेजी हुकूमत के लिए दी, जिससे हम लगभग तीन सदी बाद आजाद हो पाए। इसी शहादत को सम्मान देते हुए अंग्रेजी हुकूमत ने इन्हें विक्टोरिया क्रॉस से नवाजा। 1902 में इन वीरों की याद में तीन गुरुद्वारों का निर्माण कराया गया। इनमें एक फिरोजपुर तो दूसरा अमृतसर में स्थित है।