देश-दुनिया के इतिहास में 13 अगस्त की तारीख तमाम अहम वजह से दर्ज है। यह तारीख महारानी अहिल्याबाई के कारण मालवा-निमाड़ और महाराष्ट्र के लिए खास है।
महाराष्ट्र सरकार पिछले साल महारानी अहिल्याबाई के सम्मान में अहमदनगर का नाम बदलकर अहिल्या नगर कर चुकी है। अहिल्याबाई प्रसिद्ध सूबेदार मल्हार राव होलकर के पुत्र खंडेराव होलकर की पत्नी थीं। अहिल्याबाई किसी बड़े राज्य की रानी नहीं थीं। उनका कार्यक्षेत्र अपेक्षाकृत सीमित था। फिर भी उन्होंने जो कुछ किया, उससे आश्चर्य होता है। महारानी अहिल्याबाई होलकर मालवा साम्राज्य की मराठा होलकर महारानी थीं। उनका जन्म 31 मई 1725 को महाराष्ट्र के अहमदनगर के छौंड़ी ग्राम में हुआ था। उनके पिता मंकोजी राव शिंदे, अपने गांव के पाटिल थे। उस समय महिलाएं स्कूल नहीं जाती थीं, लेकिन अहिल्याबाई के पिता ने उन्हें लिखने -पढ़ने लायक पढ़ाया।
अहिल्याबाई के पति खांडेराव होलकर 1754 के कुम्भेर युद्ध में शहीद हुए थे। 12 साल बाद उनके ससुर मल्हार राव होलकर की भी मृत्यु हो गई। इसके एक साल बाद ही उन्हें मालवा साम्राज्य की महारानी का ताज पहनाया गया। वह हमेशा से ही अपने साम्राज्य को मुस्लिम आक्रमणकारियों से बचाने की कोशिश करती रहीं, बल्कि युद्ध के दौरान वह खुद अपनी सेना में शामिल होकर मोर्चा संभालती थीं। उन्होंने तुकोजीराव होलकर को अपनी सेना के सेनापति के रूप में नियुक्त किया था। रानी अहिल्याबाई ने अपने साम्राज्य महेश्वर और इंदौर में काफी मंदिरों का निर्माण कराया था।
इंदौर के साथ पूरे मालवा-निमाड़ में रानी अहिल्या बाई की कहानियां जर्रे-जर्रे में बसी हैं। वे न सिर्फ परम शिव भक्त थीं बल्कि अपनी प्रजा का भी बहुत ख्याल रखती थीं। मालवा की रानी देवी अहिल्याबाई होलकर प्रतिदिन 11 हजार पार्थिव शिवलिंग का पूजन करती थीं। मिट्टी से शिवलिंग बनाते वक्त वे हरेक शिवलिंग में अनाज के दाने या यूं कहें बीज रख देती थीं। पूजा के बाद शिवलिंगों को नर्मदा नदी में विसर्जित कर दिया जाता था। शिवलिंग में बीज इसलिए रखा जाता था कि जब मिट्टी नदी के तल में जाए तो वहां रह रहे जीवों का पोषण उसमें रखे बीज से हो। यदि बीज बहाव से किनारे पर आ जाए तो वह अंकुरित होकर हरियाली बढ़ा सके। 26 वर्ष तक शासन करने वाली अहिल्याबाई होलकर ने राजनीति, धर्म और न्याय व्यवस्था के लिए जितने कार्य किए हैं, उतना ही योगदान प्रकृति के संरक्षण में भी दिया।
इतिहासकारों का कहना है कि अहिल्याबाई ने किसानों की आय बढ़ाने के लिए उन्हें खेत की मेड़ पर 20-20 छायादार और फलदार पौधे लगाने का आदेश दिया था। इनमें नीबू, गुलर, बरगद, पीपल, आम, इमली को प्राथमिकता दी। इससे मृदा का क्षरण भी नहीं होता और कृषकों को पेड़ों के फलों को बेचकर प्राप्त होने वाली राशि मिलती थी। वह मछली, पशु-पक्षी, नदी, तालाब, कुएं-बावड़ी, पेड़-पौधे यहां तक कि मिट्टी के संरक्षण की तक बात करती थीं।
मालवा की महारानी देवी अहिल्याबाई होलकर को न्याय की देवी कहा जाता है। वह न्याय की ऐसी मूर्ति थी कि अपने बेटे मालोजीराव को भी सजा-ए-मौत का फरमान सुनाने से भी नहीं हिचकीं। उन्होंने अपने बेटे के हाथ-पैर बांधकर रथ के नीचे कुचलवाने का आदेश दिया था। कोई सारथी जब रथ चलाने को तैयार नहीं हुआ तो महारानी देवी अहिल्याबाई खुद सारथी बन रथ पर चढ़ गई थीं।
हुआ यूं था कि मालोजीराव अपने रथ से राजबाड़ा के पास से गुजर रहे थे। उसी दौरान मार्ग के किनारे गाय का छोटा सा बछड़ा भी खड़ा था। जैसे ही मालोराव का रथ वहां से गुजरा अचानक कूदता-फांदता बछड़ा रथ की चपेट में आ गया और बुरी तरह घायल हो गया। थोड़ी देर में तड़प-तड़प कर उसकी वहीं मौत हो गई। इस घटना को नजरअंदाज कर मालोजीराव आगे बढ़ गए। इसके बाद गाय अपने बछड़े की मौत पर वहीं बैठ गई। वो अपने बछड़े को नहीं छोड़ रही थी। कुछ ही देर बाद वहां से अहिल्याबाई गुजरीं। तभी उन्होंने बछड़े के पास बैठी हुई एक गाय को देखा, तो रुक गईं। उन्हें जानकारी दी गई। बछड़े की कैसे मौत हुई कोई बताने को तैयार नहीं था। अंततः किसी ने डरते हुए उन्हें बताया कि मालोजी के रथ की चपेट में बछड़ा मर गया। यह घटनाक्रम जानने के बाद अहिल्याबाई ने दरबार में मालोजी की पत्नी मेनाबाई को बुलाकर पूछा कि यदि कोई व्यक्ति किसी की मां के सामने उसके बेटे का कत्ल कर दे तो उसे क्या दंड देना चाहिए? मेनाबाई ने तुरंत जवाब दिया कि उसे मृत्युदंड देना चाहिए। इसके बाद अहिल्याबाई ने आदेश दिया कि उनके बेटे मालोजीराव के हाथ-पैर बांध दिए जाएं और उन्हें उसी प्रकार से रथ से कुचलकर मृत्युदंड दिया जाए, जिस प्रकार गाय के बछड़े की मौत हुई थी। राजबाड़ा के पास जिस स्थान पर यह घटना हुई थी, उस जगह को आज सभी लोग आड़ा बाजार के नाम से जानते है।
होलकर राज्य की निशानी और देवी अहिल्याबाई के शासन में बनवाई गईं चांदी की दुर्लभ मुहरें अब भी मल्हार मार्तंड मंदिर के गर्भगृह में रखी हुई हैं। इन मुहरों का उपयोग अहिल्या के समय में होता था। अहिल्याबाई के आदेश के बाद मुहर लगाई जाती थी, आदेश पत्र शिव का आदेश ही माना जाता था। छोटी-बड़ी चार तरह की मुहरें अब भी मंदिर में सुरक्षित हैं। महारानी अहिल्याबाई होलकर सफल दायित्वपूर्ण राजशाही का संचालन करते हुए 13 अगस्त, 1795 को दुनिया को अलविदा कह गईं। नर्मदा तट पर स्थित महेश्वर के किले में उन्होंने अंतिम सांस ली।