बुंदेले हरबोलो के मुंह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी- झांसी की रानी जैसी अमर कृति रचने वाली सुभद्रा कुमारी चौहान राष्ट्रीय चेतना की प्रखर कवयित्री के रूप में स्थापित हैं। उनकी रचनाएं राष्ट्रीयता की भावना से परिपूर्ण हैं।
स्वाधीनता संग्राम में कई बार जेल की यातना सहने वाली इस कवयित्री का जन्म 16 अगस्त 1904 को इलाहाबाद के निकट निहालपुर गांव में हुआ था। बचपन से ही उनकी रचनाधर्मिता सामने आने लगी थी जब उन्होंने 9 साल की उम्र में कविता लिखी जो एक नीम के पेड़ पर लिखी गई थी। वे एक रचनाकारके साथ-साथ स्वाधीनता संग्राम सेनानी भी थीं। महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन में भाग लेने वाली वे प्रथम महिला थीं और कई बार जेल गयीं।
15 फरवरी 1948 में एक दुर्घटना के दौरान महज 44 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया। उनकी साहित्यिक कृतियों में `बिखरे मोती’, `उन्मादिनी’, `मुकुल’, `त्रिधारा’ सहित बाल साहित्य के क्षेत्र में कदम्ब का पेड़ बहु चर्चित कविता है- यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे, मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे, ले देतीं यदि मुझे बांसुरी तुम दो पैसे वाली, किसी तरह नीची हो जाती यह कदंब की डाली, तुम्हें नहीं कुछ कहता पर मैं चुपके-चुपके आता, उस नीची डाली से अम्मा ऊँचे पर चढ़ जाता, वहीं बैठ फिर बड़े मजे से मैं बांसुरी बजाता, अम्मा-अम्मा कह वंशी के स्वर में तुम्हें बुलाता।