देश-दुनिया के इतिहास में 16 फरवरी की तारीख तमाम अहम वजह से दर्ज है। यह तारीख महान फिल्मकार दादा साहब फालके का पुण्य स्मरण कराती है। उन्होंने 16 फरवरी, 1944 को अंतिम सांस ली थी। हिंदी सिनेमा में दिलचस्पी रखने वालों में शायद ही कोई ऐसा हो जिसने दादा साहब फालके का नाम नहीं सुना होगा। सिने संसार में उनका नाम अदब के साथ लिया जाता है। उन्हें भारतीय सिनेमा का पितामह भी कहा जाता है। सिनेमा को लेकर उनकी दीवानगी सातवें आसमान पर रही। उसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने फिल्म बनाने के लिए अपनी पत्नी की गहने तक दांव पर लगा दिए थे। वह अपनी फिल्म की नायिका की तलाश में रेड लाइट एरिया तक पहुंच गए थे। कुछ मिलाकर कहा जाए तो फिल्मों के लिए उन्होंने वह सब किया जो सभ्य समाज की आंखों में खटकता है।
लाख मुसीबतों के बावजूद वह फिल्म बनाकर ही माने। दादा साहब का असली नाम धुंडिराज गोविंद फालके था। उनका जन्म 30 अप्रैल, 1870 में हुआ था। उनके पिता गोविंद सदाशिव फालके संस्कृत के विद्वान और पुजारी थे। साल 1913 में उन्होंने ‘राजा हरिशचंद्र’ नाम की पहली फुल लेंथ फीचर फिल्म बनाई थी। दादा साहब सिर्फ एक निर्देशक ही नहीं बल्कि एक जाने -माने निर्माता और पटकथा लेखक भी थे। उन्होंने 19 साल के फिल्मी करियर में 95 फिल्में और 27 शॉर्ट फिल्में बनाईं।
दादा साहब फालके को फिल्म बनाने का ख्याल द लाइफ ऑफ क्राइस्ट देखने के बाद आया। इस फिल्म ने उन पर इतनी गहरी छाप छोड़ी कि उन्होंने ठान ली कि अब उन्हें भी फिल्म बनानी है। हालांकि, यह काम आसान नहीं था। इसके लिए वह एक दिन में चार-पांच घंटे सिनेमा देखा करते थे, ताकि वह फिल्म मेकिंग की बारीकियां सीख सकें। उनकी पहली फिल्म का बजट 15 हजार रुपये था, जिसके लिए उन्होंने अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया था।
उस समय फिल्म बनाने के जरूरी उपकरण केवल इंग्लैंड में मिलते थे, जहां जाने के लिए उन्होंने अपनी जिंदगी की सारी जमा-पूंजी लगा दी। पहली फिल्म बनाने में उन्हें लगभग छह महीने का समय लगा। दादा साहब की आखिरी मूक फिल्म ‘सेतुबंधन’ थी। दादा साहब ने 16 फरवरी 1944 को इस दुनिया को अलविदा कहा। भारत में सिनेमा की शुरुआत करने के लिए उनके सम्मान में दादा साहब फालके अवॉर्ड दिया जाता है। साल 1969 में इसकी शुरुआत हुई थी। देविका रानी को पहली बार इस अवॉर्ड से नवाजा गया।