इतिहास के पन्नों में 23 जुलाईः आसान नहीं होता क्रांति की लौ जलाना, हर कोई नहीं हो सकता चंद्रशेखर आजाद

देश-दुनिया के इतिहास में 23 जुलाई की तारीख तमाम अहम वजह से दर्ज है। इस तारीख को हम सब देशवासी क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद की जयंती मनाते हैं। चंद्रशेखर आजाद का जन्म 23 जुलाई, 1906 को मध्य प्रदेश के भाबरा गांव में हुआ था। मूल रूप से उनका परिवार उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के बदरका गांव से था। पिता सीताराम तिवारी की नौकरी चली जाने के कारण अपने पैतृक गांव को छोड़कर भाबरा जाना पड़ा था।

चंद्रशेखर आजाद का नाम चंद्रशेखर तिवारी था। वह बचपन से ही काफी जिद्दी और विद्रोही स्वभाव के थे। चंद्रशेखर का पूरा बचपन मध्य प्रदेश के इसी आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र में बीता। यहां पर उन्होंने बचपन से ही निशानेबाजी और धनुर्विद्या सिखी। पढ़ाई से ज्यादा चंद्रशेखर का मन खेल-कूद और अन्य गतिविधियों में लगता था। जलियांवाला बाग कांड के दौरान आजाद बनारस में पढ़ाई कर रहे थे। इस घटना ने बचपन में ही चंद्रशेखर को अंदर से झकझोर दिया। उसी दौरान उन्होंने ठान ली थी कि वह ईंट का जवाब पत्थर से देंगे। इसके बाद उन्होंने यह तय कर लिया कि वह भी आजादी के आंदोलन में उतरेंगे और फिर महात्मा गांधी के आंदोलन से जुड़ गए।

1921 में महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन से जुड़ने के बाद उनकी गिरफ्तारी हुई। उस दौरान जब उन्हें जज के सामने पेश किया गया, तो उनके जवाब ने सबके होश उड़ा दिए थे। जब उनसे उनका नाम पूछा गया, तो उन्होंने अपना नाम आजाद और अपने पिता का नाम स्वतंत्रता बताया। इस बात से जज काफी नाराज हो गया और चंद्रशेखर को 15 कोड़े मारने की सजा सुनाई। आदेश के बाद, बालक चंद्रशेखर को 15 बेंत लगाई गई, लेकिन उन्होंने उफ तक नहीं की और हर बेंत के साथ उन्होंने ‘भारत माता की जय’ का नारा लगाया। आखिर में सजा भुगतने के एवज में उन्हें तीन आने दिए गए, जो वह जेलर के मुंह पर फेंक आए थे। इस घटना के बाद से ही चंद्रशेखर तिवारी को दुनिया चंद्रशेखर आजाद के नाम से जानने लगी। आज भी कोई यह नाम लेता है, तो मूंछ पर ताव देने वाले आजाद की छवि आंखों के सामने आ जाती है।

जलियांवाला बाग कांड के बाद चंद्रशेखर को समझ में आ चुका था कि अंग्रेजी हुकूमत से आजादी बात से नहीं, बल्कि बंदूक से मिलेगी। शुरुआत में गांधी के अहिंसात्मक गतिविधियों में शामिल हुए, लेकिन चौरा-चौरी कांड के बाद जब आंदोलन वापस ले लिया गया तो आजाद का कांग्रेस से मोहभंग हो गया और फिर उन्होंने बनारस का रुख किया। बनारस उन दिनों भारत में क्रांतिकारी गतिविधियों का केंद्र था। बनारस में वह देश के महान क्रांतिकारी मन्मथनाथ गुप्त और प्रणवेश चटर्जी के संपर्क में आए। क्रांतिकारी दल ‘हिन्दुस्तान प्रजातंत्र संघ’ के सदस्य बन गए। हिन्दुस्तान प्रजातंत्र संघ ने पूरे देश को अपना उद्देश्य बताने के लिए अपना मशहूर पैम्फलेट ‘द रिवोल्यूशनरी’ प्रकाशित किया। इसके बाद भारतीय क्रांति के इतिहास के अमर पन्नों में सुनहरे हर्फों में दर्ज काकोरी कांड को अंजाम दिया गया। इस कांड के लिए देश के महान क्रांतिकारियों रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्‍ला खां, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी और ठाकुर रोशन सिंह को फांसी की सजा सुनाई गई थी।

इस घटना के बाद दल के ज्यादातर सदस्य गिरफ्तार कर लिए गए और दल बिखर गया। इसके बाद आजाद के सामने एक बार फिर दल खड़ा करने का संकट आ गया। हालांकि, अंग्रेज सरकार आजाद को पकड़ने की कोशिश में लगी हुई थी, लेकिन वह छुपते-छुपाते दिल्ली पहुंच गए। दिल्ली के फिरोजशाह कोटला मैदान में सभी बचे हुए क्रांतिकारियों की गुप्त सभा आयोजित की गई। इस सभा में आजाद के साथ ही महान क्रांतिकारी भगत सिंह भी शामिल हुए। इस सभा में तय किया कि दल में नए सदस्य जोड़े जाएंगे और इसे एक नया नाम दिया जाएगा। इस दल का नया नाम ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’ रखा गया। आजाद को इस दल का कमांडर-इन-चीफ बनाया गया। इस दल ने गठन के बाद कई ऐसी गतिविधियां की, जिससे अंग्रेजी हुकूमत इनके पीछे पड़ गई। 1928 में साइमन कमीशन के खिलाफ प्रदर्शन के दौरान लाला लाजपत राय की मौत हो गई। इसके बाद भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु ने उनकी मौत का बदला लेने का फैसला किया। इन लोगों ने 17 दिसंबर, 1928 को लाहौर के पुलिस अधीक्षक जेपी सांडर्स के दफ्तर को घेर लिया और राजगुरु ने सांडर्स पर गोली चला दी, जिससे उसकी मौत हो गई।

इसके बाद आयरिश क्रांति से प्रभावित भगत सिंह ने दिल्ली असेंबली में बम फोड़ने का निश्चय किया, जिसमें आजाद ने उनका साथ दिया। इन घटनाओं के बाद अंग्रेज सरकार ने इन क्रांतिकारियों को पकड़ने में पूरी ताकत लगा दी और भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी की सजा सुनाई गई।

इससे आजाद काफी आहत हुए और उन्होंने भगत सिंह को छुड़ाने की कोशिश की, लेकिन वे सफल नहीं हो सके। दल के लगभग सभी लोग गिरफ्तार हो चुके थे। चंद्रशेखर आजाद काफी समय तक ब्रिटिश सरकार को चकमा देते रहे। आजाद ने ठान ली थी कि वो जीते जी अंग्रेजों के हाथ नहीं लगेंगे। वो किसी तरह प्रयागराज (तबके इलाहाबाद) पहुंचे। ब्रितानी हुकूमत को इसकी भनक लग गई कि आजाद अल्फ्रेड पार्क में छुपे हैं। उस पार्क को हजारों पुलिस वालों ने घेर लिया और उन्हें आत्मसमर्पण के लिए कहा, लेकिन उस दौरान वह अंग्रेजों से अकेले लोहा लेने लगे। इस लड़ाई में 20 मिनट तक अकेले अंग्रेजों का सामना करने के दौरान वह बुरी तरह से घायल हो गए। आजाद ने लड़ते हुए शहीद हो जाना ठीक समझा। इसके बाद आजाद ने अपनी गन से ही अपनी जान ले ली और वाकई में आखिरी सांस तक वह अंग्रेजों के हाथ नहीं लगे। 27 फरवरी, 1931 को वह अंग्रेजों के साथ लड़ाई करते हुए हमेशा के लिए अपना नाम इतिहास में अमर कर गए। चंद्रशेखर आजाद का अंतिम संस्कार भी अंग्रेज सरकार ने बिना किसी सूचना के कर दिया। जब लोगों की इस बात की भनक लगी तो सारा इलाहाबाद गम में डूब गया। लोगों ने उस पेड़ की पूजा शुरू कर दी, जहां इस महान क्रांतिकारी ने अपनी आखिरी सांस ली थी।

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