इतिहास के पन्नों में 18 जून : वीरांगना झांसी की रानी लक्ष्मीबाई 1858 में वीरगति को प्राप्त हुईं

देश-दुनिया के इतिहास में 18 जून का ऐतिहासिक महत्व है। भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में यह तिथि स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज है। 18 जून, 1857 को झांसी की रानी लक्ष्मीबाई अंग्रेजों की फौज से लोहा लेते हुए वीरगति को प्राप्त हुई थीं। उनकी वीरता के किस्से आज भी बुंदेलखंड में गुनगुनाए जाते हैं- चमक उठी सन 57 में वह तलवार पुरानी थी/ खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी/ बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी/ खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी…।

झांसी की रानी का जन्म 19 नवंबर,1828 को वाराणसी के मराठा ब्राह्मण परिवार में हुआ था। रानी लक्ष्मीबाई के पिता का नाम मोरोपंत ताम्बे और मां का नाम भागीरथी सप्रे था। रानी लक्ष्मीबाई के बचपन का नाम मणिकर्णिका था। घरवाले उन्हें प्यार से मनु कहकर बुलाते थे। उनके पिता अंतिम पेशवा बाजीराव द्वितीय के सेवक थे। रानी लक्ष्मीबाई चार वर्ष की थीं तभी मां का निधन हो गया। ऐसे में रानी लक्ष्मीबाई की देखभाल करने वाला घर पर कोई नहीं था। इस कारण पिता उन्हें अपने साथ बाजीराव के दरबार में ले जाते थे। यहां रानी लक्ष्मीबाई की चंचलता ने सबका मन मोह लिया था। बाजीराव प्यार से रानी लक्ष्मीबाई को ‘छबीली’ बुलाते थे। पेशवा बाजीराव के बच्चों को पढ़ाने के लिए शिक्षक आते थे। जब रानी लक्ष्मीबाई अपने पिता के साथ उनके दरबार में जाने लगीं तो वह भी बाजीराव के बच्चों के साथ शिक्षा हासिल करने लगीं। रानी लक्ष्मीबाई महज सात साल की उम्र में घुड़सवारी, तलवारबाजी और धनुर्विद्या में निपुण हो गई थी। लक्ष्मीबाई 13 वर्ष की हुईं तो 1842 में उनका विवाह झांसी के राजा गंगाधर राव निवालकर के साथ कर दिया गया। 1851 में रानी लक्ष्मीबाई को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई और पूरा झांसी शहर खुशी से झूम उठा। लेकिन जल्द ही इन खुशियों को किसी की नजर लग गई और महज चार महीने की उम्र में बालक की मृत्यु हो गई।

इस घटना के दो साल बाद राजा गंगाधर राव का स्वास्थ्य अचानक बिगड़ने लगा। दरबारियों ने रानी लक्ष्मीबाई को एक पुत्र गोद लेने की सलाह दी। इसके बाद रानी लक्ष्मीबाई ने पांच वर्ष के बालक को गोद लिया और उसका नाम रखा दामोदर राव। पुत्र गोद लेने के अगले ही दिन 21 नवंबर, 1853 को राजा गंगाधर राव का निधन हो गया। राजा गंगाधर राव के निधन के बाद झांसी पर ब्रितानी हुकूमत की नजर पड़ी। ब्रिटिश इंडिया के गवर्नर जनरल डलहौजी ने दामोदर राव को झांसी राज्य का उत्तराधिकारी मानने से इनकार कर झांसी का विलय ब्रिटिश साम्राज्य में करने का फैसला किया। रानी लक्ष्मीबाई ने इसके खिलाफ लंदन की अदालत में मुकदमा किया। कुछ समय बाद यह मुकदमा खारिज कर दिया गया।

इस दौरान अंग्रेजों ने उनके खजाने पर कब्जा कर रानी लक्ष्मीबाई को झांसी का किला छोड़ने का फरमान सुना दिया। इसके बाद रानी लक्ष्मीबाई किला छोड़ रानीमहल में चली गईं, लेकिन उन्होंने अंग्रेजों से लड़ाई लड़ने का फैसला किया। इसके लिए सेना का गठन किया। इस सेना में महिलाओं को भी शामिल किया और उन्हें युद्ध का प्रशिक्षण भी दिया। इस लड़ाई में बेगम हजरत महल, अंतिम मुगल सम्राट की बेगम जीनत महल, स्वयं मुगल सम्राट बहादुर शाह, नाना साहब के वकील अजीमुल्ला शाहगढ़ के राजा, वानपुर के राजा मर्दनसिंह और तात्या टोपे जैसे वीरों ने रानी लक्ष्मीबाई का साथ दिया।

मार्च 1858 में अंग्रेजों की फौज ने झांसी को चारों तरफ से घेर लिया। रानी लक्ष्मीबाई ने अपनी सेना के साथ अंग्रेजों का मुकाबला किया। बेटे को पीठ पर बांधकर अंग्रेजों से लड़ीं। अंग्रेजों की विशाल सेना ने किले को पूरी तरह से घेर लिया तो रानी लक्ष्मीबाई कालपी चली गईं। वहां तात्या टोपे से मिलीं। रानी लक्ष्मीबाई के पीछे-पीछे अंग्रेज भी कालपी पहुंच गए। कालपी में भी रानी लक्ष्मीबाई और अंग्रेजों के बीच युद्ध हुआ। यहां रानी की सेना को बड़ा नुकसान हुआ। मगर उन्होंने हार नहीं मानी और तात्या टोपे के साथ मिलकर रानी लक्ष्मीबाई ने ग्वालियर पर कब्जा कर लिया और नाना साहेब को पेशवा बनाने की घोषणा की। अंग्रेज कहां रुकने वाले थे। वह भी ग्वालियर पहुंच गए। 18 जून, 1858 को ग्वालियर के पास कोटा में एकबार फिर रानी लक्ष्मीबाई और अंग्रेजों के बीच भीषण युद्ध हुआ। इस युद्ध में रानी लक्ष्मीबाई अपने दोनों हाथों में तलवार लेकर अंग्रेजों की सेना से खूब लड़ीं। इस दौरान अंग्रेजों ने रानी लक्ष्मीबाई को बरछी मार दी, जिससे उनके शरीर से खून बहने लगा। तब भी रानी युद्ध लड़ती रहीं, लेकिन जब ज्यादा खून बहने के कारण वह थोड़ी कमजोर हुईं तो एक अंग्रेज ने रानी लक्ष्मीबाई के सिर पर तलवार से प्रहार किया। इससे रानी लक्ष्मीबाई बुरी तरह घायल हो गईं और घोड़े से नीचे गिर गईं। रानी लक्ष्मीबाई के सैनिक उन्हें पास के एक मंदिर में ले गए। यहीं रानी लक्ष्मीबाई वीरगति को प्राप्त हुईं। रानी लक्ष्मीबाई की अंतिम इच्छा थी कि उनका शव अंग्रेजों के हाथ न लग पाए। इसलिए उनके सैनिकों ने मंदिर के पास ही रानी लक्ष्मीबाई का अंतिम संस्कार कर दिया।

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