देश-दुनिया का इतिहास गवाह है कि 23 जून को कुछ ऐसी घटनाएं हुईं, जिन्होंने हवा का रुख मोड़ दिया। 23 जून, 1980 को भारत में भी कुछ ऐसा ही हुआ। इस दिन हुई विमान दुर्घटना में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के छोटे पुत्र संजय गांधी की मौत हो गई। संजय गांधी को उनके राजनीतिक उत्तराधिकारी के तौर पर देखा जाता था। उनके निधन से देश की सियासी हवा पूरी तरह बदल गई। इसके अलावा 23 जून की तारीख एक अन्य विमान हादसे की भी गवाह है। 1985 में 23 जून को एयर इंडिया का एक विमान आयरलैंड तट के करीब दुर्घटनाग्रस्त हो गया। इसमें 329 यात्रियों की मौत हो गई। हादसे के समय यह विमान अपने गंतव्य हीथ्रो हवाई अड्डे से मात्र 45 मिनट की दूरी पर था। आंसू तो हर मौत पर गिरते हैं पर संजय की मौत ने नेहरू-गांधी की परिवार को जार-जार रुलाया।
संजय गांधी को 1976 में हल्के विमान उड़ाने का लाइसेंस मिला था। 1977 में इंदिरा गांधी के सत्ता से हटते ही नई सरकार ने उनका लाइसेंस छीन लिया। इंदिरा की सत्ता में दोबारा वापसी होते ही उनका लाइसेंस उन्हें वापस मिल गया। इस दौर में इंदिरा परिवार के करीबी धीरेंद्र ब्रह्मचारी एक ‘पिट्स एस 2ए’ विमान आयात करना चाहते थे, जिसे खासतौर पर हवा में कलाबाजी खाने के लिए बनाया गया हो। मई 1980 में कस्टम विभाग ने उसे भारत लाने की मंजूरी दी। आनन-फानन में उसे असेंबल कर सफदरजंग हवाई अड्डे के दिल्ली फ्लाइंग क्लब पहुंचा दिया गया। संजय इसे पहले ही दिन से उड़ाना चाह रहे थे, लेकिन पहला मौका फ्लाइंग क्लब के इंस्ट्रक्टर को मिला। संजय ने पहली बार 21 जून, 1980 को इस पर अपना हाथ आजमाया। दूसरे दिन 22 जून को संजय ने अपनी पत्नी मेनका गांधी, मां के विशेष सहायक आरके धवन और धीरेंद्र ब्रह्मचारी के साथ उड़ान भरी। वह 40 मिनट तक दिल्ली के आसमान पर विमान उड़ाते रहे। संजय को अगले दिन 23 जून को माधवराव सिंधिया के साथ उड़ान भरनी थी। मगर उन्होंने दिल्ली फ्लाइंग क्लब के पूर्व इंस्ट्रक्टर कैप्टन सुभाष सक्सेना के साथ उड़ान भरी। ठीक सात बजकर 58 मिनट पर उन्होंने टेक ऑफ किया। संजय ने सुरक्षा नियमों को दरकिनार करते हुए रिहायशी इलाके के ऊपर ही तीन लूप लगाए। वह चौथी लूप लगाने ही वाले थे कि विमान के इंजन ने काम करना बंद कर दिया। कंट्रोल टॉवर में बैठे विमान को देख रहे लोगों के मुंह खुले के खुले रह गए, जब उन्होंने देखा कि विमान अशोका होटल के पीछे गिर गया। इस हादसे में संजय गांधी और कैप्टन सक्सेना की मौत हो गई।
इंदिरा गांधी की मौजूदगी में राममनोहर लोहिया अस्पताल में औपचारिकताएं पूरी की गईं। अगले दिन संजय के अंतिम संस्कार के समय इंदिरा पूरे समय मेनका का हाथ अपने हाथ में लिए रहीं। 25 जून को संजय की अस्थियों को घर लाकर एक अकबर रोड के लॉन में रखा गया। तब पहली बार इंदिरा अपने को रोक नहीं पाईं। उनकी आखों से आंसू बह निकले। पहली बार उन्हें सब के सामने खुलेआम रोते हुए देखा गया। राजीव गांधी ने अपने हाथों से उनके कंधों को सहारा दिया। राज थापर ने अपनी किताब ‘ऑल दीज ईयर्स’ में लिखा है- ‘संजय की मौत पर लोग रोए और पूरा देश गमगीन हो गया क्योंकि यह दुखद घटना तो थी ही। लेकिन इसे विडंबना ही कहिए कि इसके साथ ही लोगों में एक अजीब किस्म की राहत भी थी जिसे पूरे भारत में महसूस किया गया…।’ वर्षों बाद इंदिरा के चचेरे भाई और अमेरिका में भारत के राजदूत रहे बीके नेहरू ने भी अपनी किताब ‘नाइस गाइज फिनिश सेकेंड’ में भी कमोबेश इसी भावना का इजहार किया है। संजय की मौत से उबरने में इंदिरा को बहुत समय लगा। मगर कुछ राजनीतिक विश्लेषकों की राय में वो इस सदमे से कभी उबर नहीं पाईं।