इतिहास के पन्नों में 11 दिसंबरः ओशो-जो ‘न कभी जन्मे, न कभी मरे’

देश-दुनिया के इतिहास में 11 दिसंबर की तारीख अपनी तमाम वजह से दर्ज है। इस तारीख का रिश्ता एक ऐसे शख्स है जिसने अपने कालखंड में समूचे विश्व को प्रभावित किया। वह शख्स है-ओशो।

सन् 1956 में 12 फरवरी की एक रात दर्शनशास्त्र के विद्यार्थी चंद्रमोहन जैन मध्य प्रदेश के सागर जिले में स्थित विश्वविद्यालय की नजदीकी पहाड़ी पर महुआ के एक पेड़ के नीचे ध्यानमग्न बैठे थे। तभी अचानक उनकी चेतना शरीर से अलग हो गई। शरीर नीचे आ गिरा और उन्हें पता चला कि पेड़ से नीचे गिरा शरीर मैं नहीं हूं। मैं तो वह आत्मा हूं जो इस घटना को साक्षी बनकर देख रही है। इस घटना के बाद दुनिया को मिले आचार्य रजनीश। इन्हीं आचार्य को दुनिया ओशो के नाम से भी जानती है।

11 दिसंबर, 1931 को मध्य प्रदेश के कुचवाड़ा में उनका जन्म हुआ था। 19 जनवरी 1990 को उनका निधन हो गया। उनकी जयंती और पुण्यतिथि पर दुनियाभर में फैले उनके अनुयायी उन्हें याद करते हैं।

बचपन से ही उन्हें दर्शन में रुचि पैदा हो गई थी। यह उन्होंने अपनी किताब ‘ग्लिप्सेंस ऑफड माई गोल्डन चाइल्डहुड’ में लिखा है। उन्होंने अपनी पढ़ाई जबलपुर में पूरी की और बाद में वो जबलपुर यूनिवर्सिटी में लेक्चरर के तौर पर काम करने लगे। उन्होंने अलग-अलग धर्म और विचारधारा पर देश भर में प्रवचन देना शुरू किया। प्रवचन के साथ ध्यान शिविर भी आयोजित करना शुरू कर दिया। शुरुआती दौर में उन्हें आचार्य रजनीश के तौर पर जाना जाता था। नौकरी छोड़ने के बाद उन्होंने नवसंन्यास आंदोलन की शुरुआत की। इसके बाद उन्होंने खुद को ओशो कहना शुरू कर दिया।

साल 1981 से 1985 के बीच वो अमेरिका चले गए। अमरीकी प्रांत ओरेगॉन में उन्होंने आश्रम की स्थापना की। ये आश्रम 65 हजार एकड़ में फैला था। ओशो का अमेरिका प्रवास बेहद विवादास्पद रहा। महंगी घड़ियां, रोल्स रॉयल्स कारें, डिजाइनर कपड़ों की वजह से वे हमेशा चर्चा में रहे। ओरेगॉन में ओशो के शिष्यों ने उनके आश्रम को रजनीशपुरम नाम से एक शहर के तौर पर रजिस्टर्ड कराना चाहा लेकिन स्थानीय लोगों ने इसका विरोध किया। इसके बाद 1985 वे भारत वापस लौट आए। भारत लौटने के बाद वे पुणे के कोरेगांव पार्क इलाके में स्थित अपने आश्रम में लौट आए।

उनकी मौत के बाद पुणे आश्रम का नियंत्रण ओशो के करीबी शिष्यों ने अपने हाथ में ले लिया। आश्रम की संपत्ति करोड़ों रुपये की मानी जाती है और इस बात को लेकर उनके शिष्यों के बीच विवाद भी है। ओशो की विरासत पर ओशो इंटरनेशनल का नियंत्रण है। ओशो इंटरनेशन की दलील है कि उन्हें ओशो की विरासत वसीयत से मिली है।

पुणे स्थित उनकी समाधि पर लिखी इस बात से ओशो की अहमियत का अंदाजा लगाया जा सकता है- ‘न कभी जन्मे, न कभी मरे। वे धरती पर 11 दिसंबर, 1931 से 19 जनवरी 1990 के बीच आए थे।’ ओशो के मूल गांव कुचवाड़ा में अब विवादों का डेरा है। उनके शिष्यों ने 2003 में यहां ओशोधाम बनाने की योजना बनाई थी। शिष्य सत्यतीर्थ भारती ने 30 एकड़ जमीन भी खरीद ली थी, किंतु संपत्ति विवाद के कारण योजना विफल हो गई। यह विवाद ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन, कुचवाड़ा ओशोधाम के प्रबंधक रहे स्व. सत्यतीर्थ भारती की पत्नी तथा जापान में रहने वाली ओशो की करीबी शिष्या के बीच चल रहा है।

और 06 फरवरी 1915 को मध्य प्रदेश के उज्जैन के बड़नगर कस्बे में एक शख्स का जन्म हुआ था। इसके 48 साल बाद 27 जनवरी, 1963 में दिल्ली के नेशनल स्टेडियम में प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की मौजूदगी में लता मंगेशकर ने एक गीत गाया। इसके बोल थे- ‘ऐ मेरे वतन के लोगों, जरा आंखों में भर लो पानी’। गीत खत्म होते ही स्टेडियम में मौजूद नेहरू समेत सभी लोगों की आंखें नम थीं।

यह गीत 1962 के भारत-चीन युद्ध के दौरान शहीद सैनिकों की याद में लिखा गया था। गीत लिखने वाले शख्स थे कवि प्रदीप। वैसे इनका मूल नाम रामचंद्र नारायण द्विवेदी था। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने उन्हें उपनाम प्रदीप दिया था। उन्हें 1997-1998 में दादा साहेब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उनके लेखन के स्तर को इस बात से भी समझा जा सकता है कि उन्होंने हर तरह के गीत लिखे। उनके प्रमुख गीतों में हैं- ऐ मेरे वतन के लोगो, आओ बच्चों तुम्हें दिखाएं, दे दी हमें आजादी, हम लाए हैं तूफान से, मैं तो आरती उतारूं, पिंजरे के पंछी रे, तेरे द्वार खड़ा भगवान, दूर हटो ऐ दुनिया वालों। 11 दिसंबर 1998 में मुंबई में उनका निधन हो गया।

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