देश-दुनिया के इतिहास में 17 जुलाई की तारीख तमाम अहम वजह से दर्ज है। 1998 में 17 जुलाई को 120 से ज्यादा देशों ने मिलकर अंतरराष्ट्रीय अपराध न्यायालय की स्थापना की थी। इस अदालत को बनाने का मकसद गंभीर अपराधों के मामलों की सुनवाई करना है था। जुलाई 2002 से इस अदालत ने अपना कामकाज शुरू किया था। हालांकि भारत रोम में हुई उस संधि से अलग है, जिसमें शामिल देशों ने इस अदालत की स्थापना की थी।
दरअसल, 1945 में यूनाइटेड नेशंस के बनने के बाद से ही अंतरराष्ट्रीय अपराध न्यायालय बनाने की कोशिश हो रही थी। नौ दिसंबर, 1948 को यूनाइटेड नेशंस ने इस बारे में एक रेजोल्यूशन पास किया। इसमें कहा गया कि इतिहास में नरसंहार जैसी क्रूर घटनाओं ने मानवता का बहुत नुकसान किया है। मानव जाति को इस तरह के जघन्य संकट से मुक्त करने के लिए अंतरराष्ट्रीय सहयोग जरूरी है।
इस रेजोल्यूशन में नरसंहार को अंतरराष्ट्रीय अपराध माना गया। यूनाइटेड नेशंस ने एक अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के गठन के लिए इंटरनेशनल लॉ कमीशन से भी सुझाव मांगा। कमीशन के सुझावों के आधार पर एक कमेटी बनाई गई। इस कमेटी का काम अंतरराष्ट्रीय अदालत की स्थापना से जुड़ी रिसर्च करना था। 1953 में इस कमेटी ने एक ड्राफ्ट तैयार किया।
1993 में यूगोस्लाविया में भीषण गृह युद्ध छिड़ गया। इस युद्ध में जातीय हिंसा में हजारों लोगों का नरसंहार हुआ। इसके बाद एक बार फिर अंतरराष्ट्रीय अपराध न्यायालय के गठन की मांग बढ़ने लगी। 1994 में इंटरनेशनल लॉ कमीशन ने अंतरराष्ट्रीय अपराध न्यायालय के गठन संबंधी ड्राफ्ट पर काम पूरा किया। इस ड्राफ्ट को यूनाइटेड नेशंस जनरल असेंबली के सामने रखा गया। इस दौरान ड्राफ्ट में सुधार होते रहे और अप्रैल 1998 में ड्राफ्ट पूरी तरह बनकर तैयार हो गया।
यूनाइटेड नेशंस ने रोम में 15 जून से 17 जुलाई तक इस ड्राफ्ट को कानून का रूप देने के लिए एक कॉन्फ्रेंस बुलाई। आज ही के दिन 1998 में 120 से भी ज्यादा देशों ने इस ड्राफ्ट पर अपनी सहमति जताते हुए इसे कानून का रूप दे दिया। इसी के तहत अंतरराष्ट्रीय अपराध न्यायालय की स्थापना हुई।
2006 में अंतरराष्ट्रीय अपराध न्यायालय ने अपने पहले मामले पर सुनवाई शुरू की। ये मामला कांगो के मिलिट्री कमांडर थॉमस लुबांगा से जुड़ा था, जिन पर आरोप था कि उन्होंने सेना में बच्चों को भर्ती किया। लुबांगा ने युद्ध में उनका इस्तेमाल किया। 2009 में इस मामले में लुबांगा पर ट्रायल शुरू हुआ। 2012 तक इस मामले की सुनवाई चली। मार्च 2012 में अंतरराष्ट्रीय अपराध न्यायालय ने लुबांगा को इस अपराध का दोषी पाते हुए उन्हें 14 साल की सजा सुनाई।