अयोध्या आंदोलन के इतिहास में ’06 दिसंबर’ है खास

लखनऊ : अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि पर भव्य मंदिर तेजी से आकार ले रहा है। आगामी 22 जनवरी को रामलला नए मंदिर के गर्भगृह में विराजमान होंगे। श्रीराम जन्मभूमि मंदिर में रामलला की प्राण प्रतिष्ठा का यह क्षण ऐसे ही नहीं आ गया। इसके लिए करीब पांच सौ वर्षों तक हिंदू समाज को संघर्ष करना पड़ा है। इस संघर्ष में 06 दिसंबर 1992 का दिन विशेष महत्व रखता है। इस दिन कारसेवकों ने जन्मभूमि पर विवादित ढांचा हटाकर राम मंदिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त किया था। क्योंकि जन्मभूमि से विवादित ढ़ांचा हटाये बिना मंदिर निर्माण की कल्पना नहीं की जा सकती थी।

विश्व हिन्दू परिषद के केंद्रीय मंत्री अम्बरीष सिंह ने हिन्दुस्थान समाचार से बातचीत में कहा कि 06 दिसंबर 1992 की घटना हिन्दू समाज का शौर्यावतार थी। छह दिसंबर 1992 की घटना के बाद हिन्दुओं ने यह संदेश दिया कि अब हम अपने मानबिन्दुओं का अपमान बर्दाश्त नहीं कर सकते। पांचवी धर्मसंसद की घोषणा के अनुसार संतों के आह्वान पर 06 दिसंबर 1992 को लाखों रामभक्त अयोध्या पहुंच गए। हिन्दू हृदय सम्राट अशोक सिंहल, श्रीराम जन्मभूमि न्यास के अध्यक्ष एवं दिगम्बर अखाड़े के महंत रामचन्द्रदास परमहंस के नेतृत्व में दिग-दिगन्त में ‘रामलला हम आएंगे, मंदिर वहीं बनाएंगे’ जैसे नारे गूंज रहे थे। विवादित ढांचे से करीब 200 मीटर की दूरी पर बने विशाल मंच पर कई नेता, साधु-संत बैठे थे। इस मंच पर लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती, कलराज मिश्र और विनय कटियार समेत कई नेता मौजूद थे।

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फैजाबाद के जिला मजिस्ट्रेट और पुलिस अधीक्षक की मौजूदगी में सुबह 9 बजे पूजा-पाठ चल रहा था। लोग भजन-कीर्तन कर रहे थे। दोपहर 12 बजे के आसपास दोनों ने विवादित ढांचा परिसर का दौरा भी किया था। हालांकि, दोनों ही यह भांपने में नाकाम रहे कि कुछ देर बाद ही वहां ऐसा कुछ भी होने वाला है, जिसे कई दशकों तक याद किया जाएगा। उनके दौरे के कुछ देर बाद वहां का माहौल एकदम बदल गया। दोपहर में अचानक माहौल बदलता चला गया। विहिप ने प्लान बनाया कि राम जन्मभूमि परिसर से एक-एक मुट्ठी बालू ले जाकर सरयू में डालेंगे और प्रतीकात्मक कारसेवा करेंगे, लेकिन कारसेवक इससे सहमत नहीं थे। रामभक्तों ने संकल्प लिया कि मुख्य विवाद की जड़ यह विवादित ढ़ांचा है इसलिए हम इस ढांचे को हटाकर ही मानेंगे।

तीस अक्टूबर और दो नवंबर 1990 को अयोध्या में कारसेवकों पर गोलीबारी की घटना को याद कर कारसेवक लगातार उत्तेजित हो रहे थे। फिर क्या था देखते ही देखते कारसेवक बैरीकेटिंग तोड़कर विवादित ढ़ांचे के पास पहुंच गये। मंच से कारसेवकों को रोकने का प्रयास हुआ, लेकिन वह नहीं माने। कारसेवकों ने विवादित ढांचे को घेर लिया। कुछ ऊपर चढ़ने लगे, कुछ अंदर घुस गये। इस बीच सीआरपीएफ के जवानों ने हवाई फायर भी किया। तुरंत बजरंग दल के तत्कालीन राष्ट्रीय संयोजक विनय कटियार ने कहा कि जितने भी सुरक्षाकर्मी हैं अपने स्थान से 10 कदम पीछे हो जायें। फिर तो जय श्रीराम और हर-हर महादेव का नारा लगाते कारसेवक ढ़ांचे को तोड़ने में लग गये। साध्वी ऋतम्बरा ने मंच से बोला कि ‘एक धक्का और दो’ बाबरी ढांचा तोड़ दो। फिर जिसकी वर्षों से प्रतीक्षा थी, 1528 से हिंदू पौरुष को चुनौती दे रहा कलंक का प्रतीक विवादित ढांचा ढह गया।

अशोक सिंघल के कहने पर 06 दिसंबर 1992 को ढांचा ढह जाने के बाद तत्काल बीच वाले गुम्बद के स्थान पर भगवान का सिंहासन और ढांचे के नीचे परम्परा से चला आ रहा विग्रह सिंहासन पर स्थापित कर पूजा प्रारम्भ कर दी गयी। हजारों भक्तों ने रात-दिन लगभग 36 घंटे मेहनत करके बिना औजारों के केवल हाथों से उस स्थान के चार कोनों पर चार बल्लियां खड़ी करके कपड़े लगा दिए। पांच-पांच फीट ऊंची, 25 फीट लंबी, 25 फीट चौड़ी ईंटों की दीवार खड़ी कर दी और बन गया मंदिर। अस्थाई मंदिर का निर्माण बाबा सत्य नारायण मौर्य ने किया था।

08 दिसंबर 1992 को अतिप्रात: सम्पूर्ण अयोध्या में कर्फ्यू लग गया। परिसर केन्द्रीय सुरक्षा बलों के हाथ में चला गया, परंतु केन्द्रीय सुरक्षा बल के जवान भगवान की पूजा करते रहे। एडवोकेट हरिशंकर जैन ने उच्च न्यायालय में गुहार लगाई कि भगवान भूखे हैं। राग, भोग, पूजन की अनुमति दी जाए। एक जनवरी 1993 को उच्च न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति हरिनाथ तिलहरी ने दर्शन-पूजन की अनुमति प्रदान की।

विहिप के क्षेत्र संगठन मंत्री गजेन्द्र सिंह ने हिन्दुस्थान समाचार से कहा कि 06 दिसंबर 1992 को ढांचा गिरने के बाद उसकी दीवारों से शिलालेख प्राप्त हुआ था। विशेषज्ञों ने पढ़कर बताया कि यह शिलालेख 1154 ई. का है। इसमें संस्कृत में 20 पंक्तियां लिखी हैं। ऊं नम: शिवाय से यह शिलालेख प्रारम्भ होता है। विष्णुहरि के स्वर्ण कलशयुक्त मंदिर का इसमें वर्णन है। अयोध्या के सौन्दर्य का इसमें वर्णन है। दशानन के मान-मर्दन करने वाले का वर्णन है।

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