जंगल और पेड़ों को बचाने के लिए चिपको आंदोलन एक अनूठा प्रयोग था। 1974 में 26 मार्च को गढ़वाल के हेन्वाल घाटी के लाता गाँव में गौरा देवी और चंडीप्रसाद भट्ट के नेतृत्व में 27 महिलाओं के समूह ने पेड़ों को बचाने के लिए पेड़ों के आसपास घेरा बना लिया और भारत में चिपको आंदोलन को आरंभ किया।
आगे चलकर सुप्रसिद्ध पर्यावरणविद् सुंदरलाल बहुगुणा ने इसका नेतृत्व किया। इस आंदोलन में पेड़ों को कटने से बचाने के लिए गांव के लोग पेड़ से चिपक जाते थे, इसी वजह से इस आंदोलन का नाम चिपको आंदोलन पड़ा था।
जंगलों की अंधाधुंध और अवैध कटाई रोकने के लिए शुरू किए गए इस आंदोलन में महिलाओं का खास योगदान रहा। आंदोलन में वनों की कटाई रोकने के लिए गांव के पुरुष और महिलाएं पेड़ों से लिपट जाते थे। ठेकेदारों को पेड़ नहीं काटने दिया जाता था। चिपको आंदोलन ना सिर्फ उत्तराखंड में बल्कि पूरे देश में फैल गया था। इसका इतना व्यापक असर हुआ कि उस समय केंद्र की राजनीति में पर्यावरण एजेंडा बन गया था। आन्दोलन को देखते हुए केंद्र सरकार ने वन संरक्षण अधिनियम बनाया।