फरवरी 1938 के हरिपुरा अधिवेशन में सुभाषचंद्र बोस कांग्रेस के निर्विरोध अध्यक्ष चुने गए। लेकिन इसी साल दिसंबर में नेताजी सुभाषचंद्र बोस और महात्मा गांधी के बीच मतभेद पैदा हो गए। सवाल कृषक प्रजा पार्टी के साथ कांग्रेस के गठबंधन को लेकर था। सुभाषचंद्र बोस चाहते थे कि कांग्रेस, बंगाल में कृषक प्रजा पार्टी के साथ गठबंधन कर सरकार बनाए जबकि महात्मा गांधी इसके सख्त खिलाफ थे। महात्मा गांधी का मत था कि जहां भी कांग्रेस को बहुमत न मिले, वहां पार्टी को सरकार में शामिल नहीं होना चाहिए।
दूसरे, दुनिया पर दूसरे विश्वयुद्ध की काली छाया घनी हो रही थी। सुभाषचंद्र बोस चाहते थे कि मुश्किल में घिरे इंग्लैंड को देश की स्वतंत्रता के लिए मजबूर करने का यही अवसर है। कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में वे इस दिशा में कदम उठाना चाहते थे। महात्मा गांधी इससे सहमत नहीं थे।
फिर निर्णायक घड़ी आई जब 29 जनवरी 1939 को कांग्रेस के नये अध्यक्ष पद का चुनाव हुआ। इससे पहले इस पद के लिए सर्वसहमति बनाने की कोशिशें हुई जो विफल रही। इस चुनाव में एक तरफ गांधीजी के समर्थित उम्मीदवार पट्टाभि सीतारमैया थे तो दूसरी तरफ सुभाषचंद्र बोस।
माना जा रहा था कि गांधीजी के समर्थन वाले सीतारमैया आसानी से चुनाव जीत जाएंगे लेकिन नतीजे उलट आए। सुभाषचंद्र बोस को 1580 मत मिले तो सीतारमैया को 1377 वोट मिले। नेताजी 203 मतों से चुनाव जीत गए। सीतारमैया की हार को महात्मा गांधी की हार के रूप में देखा गया।
त्रिपुरी (जबलपुर) में 8-12 मार्च 1939 को कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन रखा गया जिसमें ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी के 160 सदस्यों की तरफ से गोविन्द वल्लभ पंत ने प्रस्ताव किया जिसमें लिखा गया था कि कांग्रेस गांधी के रास्ते पर चलेगी और उनकी इच्छा के मुताबिक ही वर्किंग कमेटी बनाई जाएगी। 10 मार्च को सब्जेक्ट कमेटी में इसे पास भी कर दिया गया जबकि यह कांग्रेस के संविधान के खिलाफ था जिसमें वर्किंग कमेटी बनाने का अधिकार अध्यक्ष के पास था।
यह ऐसी स्थिति थी जब सुभाषचंद्र बोस ने पद और पार्टी छोड़ने का मुश्किल फैसला किया। 29 अप्रैल 1939 को उन्होंने अपने फैसले की घोषणा करते हुए ऑल इंडिया फॉरवर्ड ब्लॉक के नाम से नयी पार्टी बनाई।