इतिहास के पन्नों में 17 फरवरी : नागालैंड की रानी लक्ष्मीबाई

`धर्म खो देने का मतलब अपनी संस्कृति खो देना है और अपनी संस्कृति खो देने का मतलब अपनी पहचान खो देना।’

यह पूर्वोत्तर की उस महिला योद्धा का मंत्र था, जिसने ब्रिटिश हुकूमत के दौरान वहां व्यापक पैमाने पर चल रहे ईसाई धर्मांतरण के खिलाफ पुख्ता जमीन तैयार करते हुए पूर्वोत्तर के लोगों को एकजुट किया। रानी गाइदिन्ल्यू यानी रानी गिडालू भारत की नागा आध्यात्मिक और राजनीतिक नेत्री थीं, जिन्होंने अंग्रेजों से डटकर लोहा लिया और स्वतंत्रता संग्राम के दौरान करीब 14 वर्ष कैद में बिताए।

रानी गिडालू का जन्म 26 जनवरी 1915 को मणिपुर के तमेंगलोंग जिले के नुंगकाओ गांव में हुआ था। नागा जनजाति की रानी गिडालू 1930 में महज 15 साल की उम्र में स्वतंत्रता की लड़ाई में कूद पड़ीं। वे अपने भाई कोसिन और हायपोऊ जदोनांग के साथ हेराका आंदोलन से जुड़ीं। इस आंदोलन का लक्ष्य था- पूरे इलाके में दोबारा नागा राज स्थापित कर अंग्रेजों को पूर्वोत्तर की धरती से खदेड़ना।

हालांकि अंग्रेजों ने जदोनांग को गिरफ्तार कर लिया और उन्हें 29 अगस्त 1921 को इम्फाल में फांसी दे दी गई। जिसके बाद रानी गिडालू ने आंदोलन की कमान संभाली। वे हर हाल में अपनी संस्कृति व भाषा की रक्षा करना चाहती थी। अंग्रेजी हुकूमत कबीलों का जबरन धर्मांतरण करा रही थी।

आखिरकार रानी गिडालू ने अपने समर्थकों के साथ मिलकर 18 मार्च 1932 को अंग्रेज सिपाहियों पर हमला कर दिया। हालांकि बंदूकों के सामने भाले और तीर-धनुष जैसे पारंपरिक हथियार कमजोर पड़ गए। रानी गिडालू अंडरग्राउंड रहकर मौके की तलाश करती रहीं। लेकिन 17 अक्टूबर 1932 को उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। यहां उन्हें कोहिमा और बाद में इम्फाल लाया गया। उन्हें उम्रकैद की सजा सुनाई गई। जीवनपर्यंत उनके संघर्ष को देखते हुए उन्हें नागालैंड की लक्ष्मीबाई कहा जाता है।

देश को आजादी मिलने तक 1933 से 1947 तक वे गुवाहाटी, शिलांग, आइजोल, तुरा की जेलों में सजा काटती रहीं। देश की आजादी के बाद वे सामाजिक कार्यों में संलग्न रहीं। हालांकि आजादी के बाद नागा नेतृत्व का एक तबका नागा नेशनल काउंसिल भारत से अलग होने और पारंपरिक धर्म हेराका स्थापित करने की कोशिशों का विरोध कर रहा था। रानी गिडालू ने इसका कड़ा विरोध किया और यह विरोध इतना तीव्र हो गया कि रानी गिडालू को दोबारा अंडरग्राउंड होना पड़ा। 1966 में भारत सरकार की कोशिशों के बाद वे दोबारा मुख्यधारा में वापस लौटीं। 1972 में उन्हें स्वतंत्रता सेनानी ताम्रपत्र और 1982 में पद्मभूषण जैसे सम्मान मिले। भारत सरकार ने उनके सम्मान में 1996 में एक डाक टिकट और 2015 में एक सिक्का जारी किया। 17 फरवरी 1993 को रानी गिडालू का निधन हो गया।

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