राष्ट्रवादी, हिन्दुत्व को राष्ट्रवाद की मुख्यधारा में समाहित करने वाला राजनीतिक विचारक, अधिवक्ता, समाज सुधारक और इतिहासकार विनायक दामोदर सावरकर का जन्म 28 मई 1883 को तत्कालीन बॉम्बे प्रेसिडेंसी के नासिक के निकट भागुर गांव में हुआ था। आमतौर पर उन्हें वीर सावरकर के नाम से संबोधित किया जाता है।
देश के नाम पर जीवन न्यौछावर करने वाले असंख्य सपूतों के बीच वीर सावरकर अलग पहचान रखते हैं, जिन्होंने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में अपने व्यक्तित्व की खास छाप छोड़ी। वे इकलौते स्वतंत्रता संग्राम सेनानी हैं, जिन्हें दो-दो बार आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। स्वतंत्रता आंदोलन में उनकी सक्रियता से नाराज ब्रिटिश राज ने उनके स्नातक की उपाधि को वापस ले लिया। उन्होंने इंग्लैंड के राजा के प्रति वफादारी की शपथ लेने से भी मना कर दिया, जिसके कारण उन्हें वकालत करने से रोक दिया गया।
स्वतंत्रता आंदोलन में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ मजबूती के साथ खड़ा होने वाले वीर सावरकर ने हिन्दुत्व के विकास का एक समानांतर आंदोलन खड़ा किया। उन्होंने भारत की सामूहिक हिन्दू पहचान बनाने के लिए हिन्दुत्व का शब्द गढ़ा। इसलिए उन्हें 20वीं शताब्दी का सबसे बड़ा हिन्दुत्ववादी व्यक्तित्व के रूप में स्वीकार किया जाता है। हिन्दू राष्ट्र की राजनीतिक विचारधारा को बुनियादी तत्व सावरकर ने ही उपलब्ध कराया। हिन्दू, हिन्दी और हिन्दुस्तान के लिए उनका आजीवन समर्पण रहा। वे छह बार अखिल भारतीय हिन्दू महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे।
सावरकर एक ऐसे इतिहासकार रहे हैं जिनका लेखन भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में हिन्दुत्व के महत्व को रेखांकित करने में पर्याप्त समर्थ है। उन्होंने इससे संबंधित मराठी व अंग्रेजी में 40 से अधिक पुस्तकें लिखीं। ‘द इंडियन वॉर ऑफ इंडिपेंडेंस-1857’ लिखकर उन्होंने ब्रिटिश शासन को झकझोर दिया था। ज्यादातर इतिहासकार 1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम को सिपाही विद्रोह कहते हैं लेकिन सावरकर ने इसका खोजपूर्ण इतिहास लिखा।
वीर सावरकर ने अपने लिए इच्छा मृत्यु जैसी स्थिति चुनी। कालापानी की सजा से उनका स्वास्थ्य बुरी तरह से प्रभावित हुआ। अपने निधन के करीब महीने भर पहले से उन्होंने उपवास करना शुरू कर दिया। भोजन के साथ-साथ दवाइयां भी पूरी तरह से बंद कर दी। उपवास से उनका शरीर क्षीण होता गया और 82 साल की उम्र में 26 फरवरी 1966 को उनका निधन हो गया।
वीर सावरकर ऐसी मृत्यु को स्व बलिदान बताते थे। क्योंकि मृत्यु से दो साल पहले 1964 में उन्होंने ‘आत्महत्या या आत्मसमर्पण’ लेख लिया जिसमें उन्होंने इच्छा मृत्यु का स्पष्ट समर्थन करते हुए लिखा कि निराश इंसान आत्महत्या कर जीवन समाप्त करता है लेकिन जब जीवन का लक्ष्य पूरा हो जाए और शरीर असमर्थ हो जाये तो जीवन का अंत करने को स्व बलिदान कहा जाना चाहिए।