धर्म, मानवीय मूल्यों और सिद्धांतों की रक्षा करते हुए प्राणों की आहुति देने वाले सिखों के नौवें गुरु, गुरु तेग बहादुर जी का इतिहास में स्वर्णिम स्थान है। जिन्होंने धर्म की रक्षा करते हुए स्वयं का बलिदान देकर अपनी प्रतिबद्धता की ऐसी लकीर खींच दी, जो उन्हें अद्वितीय बनाता है।
11 नवंबर 1675 में तलवार के दम पर इस्लाम कबूल करवाने की मुगल शासक औरंगजेब की बर्बर मुहिम के समक्ष गुरु तेग बहादुर जी ने घुटने टेकने से साफ इनकार कर दिया- सीस कटा सकते हैं, केश नहीं। उन्हें `हिंद दी चादर’ कहा जाता है।
दिल्ली स्थित गुरुद्वारा शीशगंज साहिब और गुरुद्वारा रकाब गंज साहिब सदा गुरु तेग बहादुर जी के बलिदान का स्मरण दिलाते रहेंगे। जहां मौत की सजा दिये जाने से पूर्व उनके सामने तीन शर्तें रखी गई थीं- कलमा पढ़कर मुसलमान बनने, चमत्कार दिखाने या फिर मौत का सामना करने को कहा गया। गुरु तेग बहादुर जी ने दृढ़ता से मौत का सामना करना स्वीकार किया।
गुरु तेग बहादुर जी को सजा दिये जाने से पहले उनकी आंखों के सामने भाई दयाला, भाई मति दास और भाई सती दास को बर्बर तरीके अपना कर उनकी हत्या की गई। भाई मती दास जी के शरीर को आरी से दो हिस्सों में काटा गया, भाई दयाला जी को कड़ाही के उबलते पानी में डालकर उबाला गया। भाई सती दास जी को रुइयों में लपेटकर आग लगा दी गई। अंत में जल्लाद जलालुद्दीन ने तलवार से गुरु तेग बहादुर जी का शीश उतार दिया।