‘देश की एकजुटता के लिए किसी एक भाषा का होना अनिवार्य’

       प्रदीप ढेडिया, ट्रस्टी, समर्पण ट्रस्ट व हिंदी सेवी
◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆पूरे भारत को एकजुट होकर रहने के लिए किसी एक भाषा का होना अनिवार्य है। अनादि काल से ही भारत की संस्कृति समाज एकमुखी होने के कारण वह विभिन्न भाषा-भाषी एवं धर्मावलंबी जन-समुदाय को एक सूत्र में बांधकर रखने में सफलता हासिल की है। ऐसी विशिष्ट और वैविध्यपूर्ण भारतीय आत्मा के विराट स्वरूप के दर्शन के लिए साहित्य को एक श्रेष्ठ एवं सशक्त माध्यम के रूप में माना जाता है। प्राचीन काल में संस्कृत ही चलती-फिरती भाषा होती थी। संस्कृत भाषा को ही श्रेष्ठ भाषा के रूप में स्वीकार किया गया था। आधुनिक काल की अगर हम बात करें तो अंग्रेजी की ओर लोगों का ज्यादा झुकाव देखा जा सकता है। लेकिन अंग्रेजी भाषा भारतीय साहित्य एवं संस्कृति की आत्मा को सफल अभिव्यक्ति देने में पूर्ण रूप से सफल नहीं हो पा रही है। यह विलायती भाषा बोलने में ही ठीक-ठाक है। इस भाषा में अपनापन नहीं झलकता है। इसका अनुभव बहुत से लोगों ने महसूस किया है, चाहे वह साहित्यकार हो, चाहे दूरदर्शन प्रेमी, राष्ट्रप्रेमी हो मीडिया हो, कोई भी हो सभी ने महसूस किया कि अपने देश को चलाने के लिए, उसे आगे बढ़ाने के लिए, देश में भाईचारा रखने के लिए किसी एक भाषा का होना अत्यंत आवश्यक है और वह भाषा ऐसी हो जिसे पूरा देश समझ सके, अपने विचारों का आदान-प्रदान आसानी से कर सके।

इसी मुद्दे पर विचार विमर्श करते हुए सभी ने यही तय किया कि हिंदी राजभाषा संपर्क भाषा के रूप में ठीक है। अगर हम यहां हिंदी के साहित्यकारों पर बात करें तो भावात्मक एकता और राष्ट्रीय विचारधारा से प्रेरित होकर कई अहिंदी भाषियों ने हिंदी का अध्ययन ही नहीं अपितु वे हिंदी में अपनी रचनाएं भी लिखने लगे। फलस्वरूप देखा जाए तो हिंदी में दो प्रकार के लेखक उभर कर सामने आते हैं, एक तो वह जो हिंदी भाषा के हैं और दूसरे वो जो अहिंदी भाषी हैं। अगर हिंदी साहित्य के पन्नों को पलट कर देखें तो हमें दोनों प्रकार के लेखक देखने को मिलेंगे। आज भी हिंदी साहित्य की श्रीवृद्धि में हिंदी भाषी लेखक तथा अहिंदी भाषी लेखक दोनों ही अपना योगदान दे रहे हैं। चाहे वह अपना अनुवाद कर रहे हों या तुलनात्मक अध्यन कर रहे हों। कहीं-न-कहीं हिंदी साहित्य से जुड़े ही रहे हैं। भारत में विभिन्न बोलियों के रूप में लगभग सात सौ अस्सी भाषाएं प्रचलित हैं। इनको छियासठ लिपियों के द्वारा लिखा जाता है।

भारत के संविधान द्वारा बाईस भाषाओं को मान्यता प्राप्त है। इनमें जनसंख्या, क्षेत्रीय विस्तार और बोलियों की संख्या की दृष्टि से हिंदी सब से बड़ी भाषा है। लगभग पैंतालिस करोड़ लोग देश में हिंदी बोलते हैं। इसके विकास में संस्कृत, अपभ्रंश, उर्दू, फारसी सहित भोजपुरी, अंगिका, बज्जिका, अवधि, बुन्देलखंडी, ब्रज, कुमायूंनी, गढ़वाली, मेवाड़ी, मेवाती, राजस्थानी, भीली, छत्तीसगढ़ी, हरियाणवी और देशज-विदेशज भाषाओं-बोलियों का योगदान रहा है।
हिंदी भाषी लेखक की अपेक्षा अहिंदी भाषी लेखक को हिंदी में रचना करने के लिए संघर्ष का सामना करना पड़ता है। उन्हें समझने और समझाने में थोड़ी दिक्कत हो सकती है क्योंकि वे हिंदी के नैसर्गिक वातावरण से वंचित रहते हैं। इसीलिए उन्हें ज्यादा चिंतन और मनन करने की आवश्यकता होती है। उन्हें उस वातावरण में पढ़ना पड़ता है। सदियों से अहिंदी भाषी हिंदी की प्रगति एवं प्रतिष्ठा में अपना अमूल्य योगदान देते आ रहे हैं। हिंदी के महत्व को लेकर समाज सुधारक, कई महान नेताओं ने अपने-अपने मत दिए हैं। उनके प्रभाव और प्रेरणा से कई लोग हिंदी में अपना-अपना योगदान दे रहे हैं।

इसी के फलस्वरूप मद्रास में “दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा” की स्थापना हुई। जिसकी शाखा दक्षिणी भाग के चारों राज्यों में फैली हुई है। यह एक प्रमुख हिंदी सेवी संस्था है जो दक्षिणी राज्यों आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु, केरल और कर्नाटक में भारत के स्वतंत्र होने के काफी पहले से हिंदी के प्रचार-प्रसार का कार्य कर रही है। इसके संस्थापक ‘महात्मा गांधी’ तथा ‘एनी बेसेंट’ थी। इसका मुख्य ध्येय था ‘एक राष्ट्रभाषा हिंदी हो एक हृदय हो भारत जननी’ इस प्रकार दक्षिण भारत के चारों राज्यों ने हिंदी की उन्नति और विकास में अपना महत्वपूर्ण योगदान देते चले आ रहे हैं। ‘दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा’ और अन्य बहुत से प्रचार संस्थाओं की ओर से हिंदी के पठन-पाठन में और हिंदी को बढ़ावा देने का जो दुर्लभ प्रयास हुआ है या हो रहा है उसका अपना एक अलग महत्व है।

स्वतंत्रता आंदोलन के समय अनेकानेक भारतीय भाषा-भाषी लोग थे, जिन्होंने हिंदी में काम किया। धार्मिक आंदोलन, शिक्षा के प्रचार-प्रसार, सामाजिक कार्य, व्यापारिक गतिविधियां, राजनीतिक कार्य में शामिल अनेक गुजरती, मराठी, बंगाली, ओडिसी, तमिल, मलयाली भाषी लोगों ने हिंदी को जी-जान से चाहा है और प्राणपण से इसकी सेवा की है। स्वतंत्रता आंदोलन के समय वैचारिक आदान-प्रदान और जनता के बीच संदेश पहुंचाने के लिए जब पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन शुरू किया गया, पर्चे छापे जाने लगे और जन सभाओं का आयोजन किया जाने लगा, तो सबके बीच एक सूत्र के रूप में हिंदी भाषा ही थी। देश के सभी भाषा-भाषी पत्रकार, समाजसेवक, राजनेता, वकील, शिक्षक, जब एक मंच पर इकट्ठा होते थे तब उनके संवाद की भाषा हिंदी ही होती थी। इन सब में गैर हिंदी भाषियों की संख्या अधिक होती थी। जब भी उन्हें अपनी बात राष्ट्रीय स्तर पर पहुंचानी होती थी, तब हिंदी का सहारा लेना पड़ता था। इसलिए उस समय के सभी शीर्ष नेतृत्व को हिंदी सीखना पड़ता था। हिंदी सीख कर वे अपने कौशल में वृद्धि करने के साथ-साथ हिंदी की सेवा भी कर रहे थे। उनके ऐसे पत्र और पत्रिकाएं स्वतंत्रता आंदोलान के समय देश के गैर हिंदी भाषी क्षेत्र से निकलती थीं, जिनके हिंदी परिशिष्ट भी होते थे। मराठी भाषी केशव वामा पेठे ने 1893 ई. में ‘राष्ट्रभाषा किंवा सर्व हिन्दुस्थानची एक भाषा करणे’ नामक पुस्तक पुणे से प्रकाशित की थी, जिसमें उन्होंने हिंदी को सर्वस्वीकृत राष्ट्रभाषा बनाने पर जोर दिया था। इसी तरह अनेक महानुभावों का सार्थक योगदान हिंदी को राष्ट्रीय भाषा की स्वीकृति, प्रचार-प्रसार और लोकप्रिय बनाने में रहा है।

महात्मा गांधी ने दक्षिण अफ्रीका से लौट कर भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल होने के पूर्व देश का भ्रमण किया। वे गुजराती भाषी थे और अंग्रेजी के अच्छे जानकार थे, किन्तु भारत पहुंच कर उन्होंने हिंदी में ही अपनी बात रखना शुरू किया। चम्पारण के किसान आंदोलन का नेतृत्व करते हुए वे लगभग छः महीने वहीं किसानों के बीच में रहे। उस कालखंड में उनका देश भर में हिंदी में ही संवाद होता था। आगे चल कर जब वे स्वतंत्रता आंदोलन में पूरी तरह सम्मिलित हो गए, तब छुआछूत, हरिजनोद्धार, भाषा विवाद के समापन इत्यादि पर गंभीरता से कार्य शुरू किया। उन्होंने ‘हरिजन’ नामक पत्र हिंदी में निकालना शुरू किया। स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की बैठक में हिंदी में ही बातचीत होती थी। सेवाग्राम में रहते हुए वे अपना पूरा पत्राचार हिंदी में ही करने का आग्रह करते थे। अपनी ‘आत्मकथा’ के भाग-पांच, अध्याय-छत्तीस में वे एक प्रसंग स्मरण करते हुए लिखते हैं, दिल्ली के मुसलमानों के सामने मुझे शुद्ध उर्दू में लच्छेदार भाषण नहीं करना था, बल्कि अपना अभिप्राय टूटी-फूटी हिंदी में समझा देना था। यह काम बड़े मजे से कर पाया। हिन्द स्वराज के प्रकाशन काल 1901 से 1936-37 तक महात्मा गांधी हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की लगातार मांग करते रहे। यद्यपि बाद में वे हिन्दुस्तानी के पक्षधर हो गए थे, फिर भी हिंदी को व्यापक आधार की भाषा मानते रहे।

हिंदी के महत्व को समझते हुए देश को एकसूत्रता में बांधने का संकल्प स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने जब लिया, उस समय अध्यात्म के क्षेत्र में संस्कृत के साथ-साथ देशज बोलियों का चलन था। किन्तु उन्होंने हिंदी की शक्ति को पहचान लिया था। इसीलिए अपने सब से प्रमुख ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश की रचना हिंदी में की। वे गुजराती भाषी थे। संस्कृत के विद्वान थे, फिर भी आर्यसमाज के विस्तार, प्रचार प्रसार का माध्यम हिंदी को बनाया।

हिंदी पत्रकारिता में जिन गैर हिंदीभाषी पत्रकारों का महत्वपूर्ण योगदान हैं, उनमें बाबुराव विष्णु पराडकर का नाम बड़ी श्रद्धा के साथ लिया जाता है। वे कोलकाता में नेशनल कालेज में हिंदी और मराठी के शिक्षक थे। उस समय योगीराज अरविंद घोष वहां प्राचार्य थे। पराडकर जी अपने मामा की पुस्तक देशेर कथा का हिंदी में अनुवाद करके चर्चित हो गए। उन्होंने कोलकाता से ही भारतमित्र नामक पत्र हिंदी में निकाला। उसके सम्पादक के नाते उन्हें कई बार जेल भी जाना पड़ा। पराडकर जी के सहयोग से वाराणसी से हिंदी का ‘आज’ दैनिक प्रकाशित हुआ। उसके सम्पादक के रूप में उन्होंने हिंदी पत्रकारिता को भाषाई अखबार से ऊपर उठाकर राष्ट्रीय पहचान दी। उन्होंने हिंदी की पत्रकारिता की भाषा का गठन किया। हिंदी के अनेक शब्द स्वयं गढ़े और अंग्रेजी का विकल्प प्रस्तुत किया। विदेशी शब्दों का गजब का भारतीयकरण कर दिया। मानकीकरण, मुद्रास्फीति और नेशन को राष्ट्र शब्द उन्होंने ही दिया। ‘आज’ अखबार वाराणसी सहित अनेक नगरों से आज भी निकल रहा है।

वर्तमान समय में सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं के सहयोग से हिंदी देशभर की संपर्क भाषा के रूप में प्रतिष्ठित है। गैर हिंदी भाषी विद्वानों, साहित्यकारों, पाठकों ने इसके उत्थान, विकास, प्रचार, प्रसार, स्वीकृति में जितना योगदान है, वह प्रसंसनीय और अनुकरणीय है। इन सबके द्वारा हिंदी को बढ़ावा देने से हमारी राष्ट्रीय एकजुटता पुष्ट हुई है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *