इतिहास के पन्नों में 03 जुलाईः बीसवीं सदी में जन्मे काफ्का का साहित्य कालजयी है

देश-दुनिया के इतिहास में 03 जुलाई की तारीख तमाम अहम वजह से दर्ज है। यह तारीख विश्व साहित्य के लिए भी अनमोल है। दरअसल जर्मन लेखक फ्रैंज काफ्का का जन्म प्राग के एक मध्यमवर्गीय जर्मन भाषी बोहेमियन यहूदी परिवार में तीन जुलाई, 1883 को हुआ था। उन्हें बीसवीं सदी का सर्वाधिक प्रभावशाली कथाकार और सांस्कृतिक रूप से समझदार लेखक माना जाता है। उन्होंने तत्कालीन पीढ़ी को प्रभावित किया। उनकी रचनाओं के अनुवाद पूरी दुनिया में हुए। इनमें भारतीय भाषाएं और प्रमुख रूप से हिंदी भी शामिल है। उनकी लघु कथा, कहानियां और उपन्यास कालजयी हैं।

फ्रैंज काफ्का कहते थे-‘हमें ऐसी किताबें पढ़नी चाहिए, जो कुल्हाड़ी की तरह हमारे अंदर के जमे समंदर के ऊपर पड़ें। हमें चोट पहुंचा दें। घायल कर दें। उन किताबों को पढ़ने के बाद हम पहले जैसे बिल्कुल न रहें। काफ्का को कम शब्दों में अपनी बात कहने में महारथ हासिल थी। खास बात यह कि वह हर हाल में संघर्षरत मनुष्य के पक्ष में थे। तमाम अवसरों के बावजूद काफ्का ने अपनी तमाम जिंदगी अकेलेपन, आंतरिक संघर्ष और विश्वास की तलाश में गुजार दी। उनकी ‘दिशा’ नामक इस लघु कथा को पढ़कर यह महसूस किया जा सकता है। इसका अनुवाद सुकेश साहनी ने किया है- ‘बहुत दुख की बात है,’ चूहे ने कहा, ‘दुनिया दिन प्रतिदिन छोटी होती जा रही है। पहले यह इतनी बड़ी थी कि मुझे बहुत डर लगता था। मैं दौड़ता ही रहा था और जब आखिर में मुझे अपने दाएं-बाएं दीवारें दिखाई देने लगीं थीं तो मुझे खुशी हुई थी। पर यह लंबी दीवारें इतनी तेजी से एक दूसरे की तरफ बढ़ रही हैं कि मैं पलक झपकते ही आखिर छोर पर आ पहुंचा हूं, जहां कोने में वह चूहेदानी रखी है और मैं उसकी ओर बढ़ता जा रहा हूं। जहां दिशा बदलने की जरूरत है, बस., बिल्ली ने कहा, और उसे खा गई।’

समझ सकते हैं कि उनकी लघु कहानियों ने किस तरह से समूची दुनिया में अपना डंका बजाया। उनकी रचनाएं आधुनिक समाज के व्यग्र इंसान, उसकी हड़बड़ी और अलगाव की अभिव्यक्ति हैं। न्यूयॉर्कर ने एक लेख में काफ्का के साहित्यिक और सामाजिक अवदान को दार्शनिक अंदाज में प्रस्तुत किया है। इस लेख के कुछ अंश-“जब काफ्का का जन्म हुआ, तब उस सदी के आधुनिक विचारों ने पनपना आरंभ किया। जैसे कि सदियों के बीच में एक नई आत्मचेतना। अपनी मृत्यु के इतने साल बाद भी काफ्का आधुनिक विचारधारा के एक पहलू के प्रतीक हैं।

काफ्का की ‘खिड़की’ नामक इस लघुकथा में समूचा जीवन दर्शन शामिल है। ‘खिड़की’ का अनुवाद यूं है- जीवन में अलग-थलग रहते हुए भी कोई व्यक्ति जब-तब कहीं-कहीं किसी हद तक जुड़ना चाहेगा। दिन के अलग-अलग समय, मौसम, काम-धंधे की दशा आदि में उसे कम से कम एक ऐसी स्नेहिल बांह की ओर खुलने वाली खिड़की के बगैर बहुत अधिक समय तक नहीं रह सकेगा। कुछ भी न करने की मनःस्थिति के बावजूद वह थके कदमों से खिड़की की ओर बढ़ जाता है और बेमन से कभी लोगों और कभी आसमान की ओर देखने लगता है। उसका सिर धीरे से पीछे की ओर झुक जाता है। इस स्थिति में भी सड़क पर दौड़ते घोड़े, उनकी बग्घियों की खड़खड़ और शोरगुल उसे अपनी ओर खींच लेंगे और अंततः वह जीवन-धारा से जुड़ ही जाएगा। फ्रैंज काफ्का की हिंदी में छपी प्रमुख रचनाएं ‘कायापलट’, ‘जांच’, ‘एक भूखा कलाकार’, और ‘महल’ आदि हैं।

प्राग में काफ्का से जुड़ी दो प्रतिमाएं सैलानियों का ध्यान खासतौर पर खींचती हैं। एक सूट पहने एक बिना चेहरे के आदमी के कंधे पर सवार काफ्का। मूर्तिकार जार्सोल्वा की इस ब्रांस प्रतिमा का आइडिया काफ्का की कहानी ‘डिस्क्रिप्शन ऑफ स्ट्रगल’ से लिया गया है। दूसरी चर्चित लेकिन अजीबो गरीब प्रतिमा काफ्फा म्यूजिम के बाहर दो युवाओं की है। काफ्का ने तीन जुलाई 1924 को इस फानी दुनिया को अलविदा कहा।

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