दुनिया के इतिहास में 25 जून की तारीख तमाम अहम वजह से दर्ज है। भारत के इतिहास में साल 1975 की यह तारीख काले अध्याय के रूप में चस्पा है। इसी साल 12 जून को इलाहाबाद हाई कोर्ट के तत्कालीन जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा पर देश भर की निगाह टिकी थी। जस्टिस सिन्हा इंदिरा गांधी बनाम राजनारायण मामले में अपना फैसला सुनाने वाले थे। यह मामला साल 1971 के चुनाव से जुड़ा था। इस चुनाव में इंदिरा गांधी ने रायबरेली से राजनारायण को हराया था। हारने के बाद राजनारायण ने चुनाव नतीजे को कोर्ट में चुनौती दी थी। राजनारायण ने इंदिरा गांधी पर सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग, चुनाव में घोटाले और भ्रष्टाचार का आरोप लगाया था। मांग की थी कि चुनाव रद्द किया जाए।
सुबह करीब 10 बजे जस्टिस सिन्हा अपने चैंबर से कोर्ट रूम पहुंचे और फैसला सुनाना शुरू किया। फैसले में उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को चुनाव में धांधली का दोषी करार दिया और चुनाव रद्द कर दिया। साथ ही जस्टिस सिन्हा ने यह भी कहा कि आने वाले 6 साल तक इंदिरा चुनाव नहीं लड़ सकेंगी। ऐसा पहली बार हुआ कि भारत के प्रधानमंत्री का चुनाव ही रद्द कर दिया गया।
यहीं से किस्सा कुर्सी की शुरुआत होती है। फैसले से इंदिरा गांधी भीतर तक हिल गईं। इंदिरा गांधी किसी भी कीमत पर प्रधानमंत्री की कुर्सी छोड़ने को तैयार नहीं थी। उन्होंने हाई कोर्ट के इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जाने का फैसला किया। 23 जून को इंदिरा गांधी ने सुप्रीम कोर्ट में इस फैसले को रोकने के लिए याचिका दायर की। अगले ही दिन तत्कालीन जस्टिस वीआर कृष्णा अय्यर ने याचिका पर सुनवाई करते हुए फैसला सुनाया। उन्होंने कहा कि वे हाई कोर्ट के फैसले पर पूरी तरह रोक नहीं लगाएंगे, लेकिन इंदिरा प्रधानमंत्री पद पर बनीं रह सकती हैं। साथ ही ये भी कहा कि इस दौरान वे संसद की कार्यवाही में भाग तो ले सकती हैं, लेकिन वोट नहीं कर सकेंगी।
सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें थोड़ी राहत जरूर दी, लेकिन इंदिरा के लिए ये काफी नहीं थी। इंदिरा गांधी के पास ये विकल्प था कि वे किसी और को प्रधानमंत्री बना सकती थीं, लेकिन कहा जाता है कि संजय गांधी इस बात के लिए राजी नहीं थे। एक तरफ इंदिरा गांधी को कोर्ट से राहत नहीं मिली, दूसरी तरफ लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में पूरा विपक्ष सड़कों पर उतर कर इंदिरा के इस्तीफे की मांग करने लगा।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद तो विपक्ष और आक्रामक हो गया। 24 जून को फैसला आया और 25 जून को जयप्रकाश नारायण ने दिल्ली के रामलीला मैदान में रैली का आयोजन किया। इस रैली में लाखों लोग पहुंचे। जयप्रकाश नारायण (जेपी) ने रामधारी सिंह दिनकर की कविता का अंश पढ़- ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’। जेपी ने इंदिरा गांधी को स्वार्थी और महात्मा गांधी के आदर्शों से भटका हुआ बताते हुए उनसे इस्तीफे की मांग की।
इंदिरा अब चौतरफा घिर चुकी थीं। इधर जेपी की रैली खत्म हुई और उधर इंदिरा गांधी राष्ट्रपति भवन पहुंचीं। 25-26 जून की दरमियानी रात को तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद से इंदिरा गांधी ने आपातकाल (इमरजेंसी) के आदेश पर दस्तखत करा लिए। 26 जून सुबह 6 बजे कैबिनेट की आपातकालीन बैठक बुलाई गई। अभी तक देश को इस फैसले की भनक तक नहीं थी। इंदिरा गांधी ने ये फैसला लेने से पहले अपने मंत्रिमंडल से सलाह तक नहीं ली थी।
करीब आधे घंटे चली कैबिनेट बैठक के बाद इंदिरा गांधी ने आकाशवाणी पर देश में इमरजेंसी लगाने की घोषणा की। इसके साथ ही आजाद भारत के इतिहास के सबसे बुरे दौर की शुरुआत हो गई। विपक्षी नेताओं समेत कांग्रेस के नेताओं को भी जेल में डाल दिया गया। प्रेस पर पाबंदी लगा दी गई। नागरिकों के सारे अधिकार छीन लिए गए और देश में लोकतंत्र खत्म हो गया। अगले दिन देश में अखबार नहीं छप पाए क्योंकि सरकार ने अखबार के दफ्तरों की बिजली काट दी थी। जो अखबार छप रहे थे, उन पर सख्त पाबंदी लगा दी गई। अखबारों में क्या छपेगा और क्या नहीं, इसके लिए सरकार ने अखबारों के दफ्तर में अफसरों को तैनात कर दिया।
इमरजेंसी के दौरान इंदिरा के छोटे बेटे संजय गांधी ने नसबंदी अभियान चलाया, जिसमें पकड़-पकड़कर लोगों की नसबंदी की गई। लाखों लोगों को जेल में डाल दिया गया। पूरा देश एक बड़ी जेल बन गया। इस दौरान इंदिरा गांधी ने नए-नए कानून लाकर संविधान को कमजोर करने की कोशिश भी की। इस भयावह त्रासदी को पूरा देश 21 महीनों तक झेलता रहा। जनवरी 1977 में घोषणा की गई कि 16 मार्च को देश में चुनाव होंगे। देश में चुनाव हुए और इंदिरा गांधी को जनता ने सबक सिखाया। इंदिरा और संजय गांधी दोनों चुनाव हार गए। इसके बाद 21 मार्च, 1977 को आपातकाल खत्म हो गया, लेकिन यह देश का सबसे काला समय साबित हुआ। इसकी टीस लोगों के दिलों में आज भी जिंदा है।