देश-दुनिया के इतिहास में 05 मार्च की तारीख तमाम अहम वजह से दर्ज है। आधुनिक भारत के इतिहास में 05 मार्च 1931 का ऐतिहासिक महत्व है। इसी दिन महात्मा गांधी और तत्कालीन वायसराय लॉर्ड इरविन के बीच समझौता हुआ था। इस समझौते के लिए पहली बार अंग्रेजों ने भारतीयों के साथ समान स्तर पर वार्ता की थी। मगर कई इतिहासकार यह भी मानते हैं कि गांधी चाहते तो भगत सिंह की फांसी रोकने के लिए वायसराय पर दबाव बना सकते थे पर उन्होंने ऐसा किया नहीं।
इस समझौते की पृष्ठभूमि 1930 की है। ब्रितानी हुकूमत ने भारतीयों पर नमक बनाने और बेचने की पाबंदी लगा दी थी। इसके खिलाफ गांधी ने अहमदाबाद के साबरमती आश्रम से दांडी तक मार्च किया। यह सविनय अवज्ञा आंदोलन की ओर पहला कदम था। गांधी ने समुद्र तट पर पहुंचकर खुद यह नमक कानून तोड़ा। इस पर उन्हें जेल में डाल दिया गया। नमक आंदोलन ने पूरी दुनिया में सुर्खियां बटोरीं। इस कारण लॉर्ड इरविन की मुश्किलें बढ़ीं। तब उन्होंने पांच दौर की बैठक के बाद महात्मा गांधी के साथ 05 मार्च 1931 को समझौता किया। इसे गांधी-इरविन समझौता कहा जाता है।
इस समझौते में हिंसा के आरोपितों को छोड़कर बाकी सभी राजनीतिक बंदियों को रिहा करने पर सहमति बनी थी। उस समय पूरा देश 23 साल के भगत सिंह की चर्चा कर रहा था। भगत सिंह को अक्टूबर 1930 में फांसी की सजा सुनाई गई थी। गांधी पर कांग्रेस के साथ-साथ देश का दबाव था कि वे भगत सिंह की फांसी को रुकवाएं पर गांधी-इरविन समझौते में इसका जिक्र तक नहीं था। गांधी ने अपने पत्र में इतना ही लिखा कि भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी न दी जाए तो अच्छा है। दरअसल, गांधी भगत सिंह के संघर्ष को राष्ट्रीय आंदोलन का हिस्सा नहीं मानते थे। इसी वजह से 23 मार्च 1931 को भगत सिंह और उनके दो साथियों को फांसी दे दी गई। सिर्फ सुभाषचंद्र बोस ने कांग्रेस में रहते हुए भी 20 मार्च, 1931 को फांसी के विरोध में दिल्ली में एक बड़ी जनसभा की थी।
इस समझौते के तहत राजनीतिक बंदियों की रिहाई के साथ-साथ भारतीयों को समुद्र किनारे नमक बनाने का अधिकार मिला। भारतीय शराब और विदेशी कपड़ों की दुकानों के सामने धरना देने की आजादी भी मिली। आंदोलन के दौरान त्यागपत्र देने वालों को बहाल किया गया। जब्त संपत्ति भी वापस की गई। कहीं न कहीं, इस समझौते ने गोलमेज सम्मेलन में महात्मा गांधी और कांग्रेस के भाग लेने का रास्ता खोला। पर भगत सिंह की फांसी को लेकर इस करार में कुछ न होना, अब भी इतिहासकारों की आलोचना और चर्चा का विषय रहता है।