इतिहास के पन्नों में 10 मईः 1857 में भारत में अंग्रेजों के खिलाफ पहली बार भड़की चिंगारी

भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम इसी तिथि (10 मई, 1857) को मेरठ में सैन्य विद्रोह के रूप में शुरू हुआ था। यही नहीं 1994 में 10 मई को ही दक्षिण अफ्रीका में नेल्सन मंडेला ने ऐतिहासिक समारोह में राष्ट्रपति पद की शपथ ली थी। वैश्विक संदर्भ में यह दोनों घटनाक्रम इतिहास का बेहद जरूरी हिस्सा हैं। ब्रितानी हुकूमत के खिलाफ मेरठ में भड़की विद्रोह की चिंगारी धीरे-धीरे कानपुर, बरेली, झांसी, दिल्ली और अवध आदि स्थानों पर फैल गई। क्रांति की शुरुआत तो सैन्य विद्रोह के रूप में हुई। मगर समय के साथ उसका स्वरूप बदल कर ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध एक जनव्यापी विद्रोह के रूप में हो गया। इसलिए इसे भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कहा जाता है।

उन्नीसवीं सदी की पहली आधी सदी के दौरान ईस्ट इंडिया कंपनी का भारत के बड़े हिस्से पर कब्जा हो चुका था। जैसे-जैसे ब्रिटिश शासन का भारत पर प्रभाव बढ़ा, वैसे-वैसे भारतीय जनता के बीच ब्रिटिश शासन के खिलाफ असंतोष फैला। प्लासी युद्ध के 100 साल बाद ब्रिटिश राज के दमनकारी और अन्यायपूर्ण शासन के खिलाफ असंतोष विद्रोह के रूप में भड़कने लगा। इस चिंगारी ने भारत में ब्रिटिश शासन की नींव हिला दी। 1857 के विद्रोह का प्रमुख राजनीतिक कारण ब्रिटिश सरकार की ‘गोद निषेध प्रथा’ या ‘हड़प नीति’ थी। यह अंग्रेजों की विस्तारवादी नीति थी। अंग्रेजों ने भारतीय राज्यों को अंग्रेजी साम्राज्य में मिलाने के उद्देश्य से कई नियम बनाए। मसलन किसी राजा के निःसंतान होने पर उसका राज्य ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा बन जाता था। राज्य हड़प नीति के कारण राजघरानों में असंतोष फैल गया। रानी लक्ष्मीबाई के दत्तक पुत्र को झांसी की गद्दी पर नहीं बैठने दिया गया। हड़प नीति के तहत ब्रिटिश शासन ने सतारा, नागपुर और झांसी को ब्रिटिश राज्य में मिला लिया। आग में घी का काम उस घटना ने किया जब बहादुर शाह द्वितीय के वंशजों के लाल किले में रहने पर पाबंदी लगा दी गई। कुशासन के नाम पर लार्ड डलहौजी ने अवध का विलय करा लिया। इस घटना के बाद जो अवध पहले तक ब्रिटिश शासन का वफादार था, अब विद्रोही बन गया।

1850 में ब्रिटिश सरकार ने हिंदुओं के उत्तराधिकार कानून में बदलाव कर दिया। इसमें कानून बनाया गया कि क्रिश्चयन धर्म अपनाने वाला हिंदू ही अपने पूर्वजों की संपत्ति में हकदार बन सकता था। इसके अलावा मिशनरियों को पूरे भारत में धर्म परिवर्तन की छूट मिल गई थी। यही नहीं भारतीय समाज में सदियों से चली आ रही कुछ प्रथाओं जैसे सती प्रथा आदि को समाप्त करने पर लोगों के मन में असंतोष पैदा हुआ। और धीरे-धीरे विद्रोह की यह चिंगारी ज्वालामुखी बनकर धधकने लगी।

दूसरा घटनाक्रम दक्षिण अफ्रीका है। रंगभेद के खिलाफ लड़ाई लड़ने वाले मंडेला ने पहली राजनीतिक पारी सिर्फ 18 वर्ष की आयु में शुरू की थी। 1944 में उन्होंने अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस की सदस्यता ली। 1952 में वे इसकी ट्रांसवाल शाखा के अध्यक्ष और फिर राष्टीय उपाध्यक्ष चुने गए। 1953 में पहली बार जेल गए थे। फिर आंदोलनों की वजह से उन पर देशद्रोह का मुकदमा चला। 1956 में उन्हें पांच साल की सजा सुनाई गई। पांच अगस्त, 1962 को देशव्यापी हड़ताल और राजद्रोह के जुर्म में उन्हें दोबारा गिरफ्तार किया गया। इस बार वह 27 साल तक जेल में रहे। जेल के दौरान ही मंडेला विश्वभर में लोकप्रिय हो गए। वो पूरे अफ्रीका महाद्वीप में रंगभेद के खिलाफ लड़ने वाले सबसे बड़े नेता बन गए। मंडेला साहस, धैर्य, जनता से जुड़ाव और त्याग की भावना की वजह से अफ्रीका ही नहीं बल्कि विश्वभर के अश्वेत और हाशिये पर मौजूद लोगों के नेता बन गए। इस नेता ने 10 मई, 1994 को राष्ट्रपति पद की शपथ ली।

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