गिरीश्वर मिश्र
भारतीय संस्कृति में गुरु या शिक्षक को ऐसे प्रकाश के स्रोत के रूप में ग्रहण किया गया है जो ज्ञान की दीप्ति से अज्ञान के आवरण को दूर कर जीवन को सही मार्ग पर ले चलता है। इसीलिए उसका स्थान सर्वोपरि होता है। उसे ‘साक्षात परब्रह्म’ तक कहा गया है। आज भी सामाजिक, आध्यात्मिक और निजी जीवन में बहुत सारे लोग किसी न किसी गुरु से जुड़े मिलते हैं। गुरु से प्रेरणा पाने और उनके आशीर्वाद से मनोरथों की पूर्ति की कामना आम बात है यद्यपि गुरु की संस्था में इस तरह के विश्वास को कुछ छद्म गुरु नाजायज़ फ़ायदा भी उठाते हैं और गुरु-शिष्य के पावन सम्बन्ध को लांछित करते हैं। शिक्षा के औपचारिक क्षेत्र में गुरु या शिक्षक एक अनिवार्य कड़ी है जिसके अभाव में ज्ञान का अर्जन, सृजन और विस्तार सम्भव नहीं है। भारत में शिक्षक दिवस डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन की स्मृति को जीवंत करता है, वे एक महान अध्यापक और राजनयिक थे जिन्होंने अपने अध्यवसाय से एक साधारण ग्रामीण पृष्ठभूमि से आकर देश-विदेश में दार्शनिक के रूप में ख्याति अर्जित की और राष्ट्रपति के शीर्ष पद को सुशोभित किया। वे आज भी वैदुष्य की दृष्टि से प्रेरणा-स्रोत हैं।
भारतीय समाज की स्मृति में धौम्य-उद्दालक, चाणक्य-चंद्रगुप्त, समर्थगुरु रामदास-शिवा जी महाराज और रामकृष्ण परमहंस-विवेकानंद जैसी गुरु-शिष्य की जोड़ियाँ बड़ी प्रसिद्ध हैं जिन्होंने युगांतरकारी उपलब्धियाँ कीं और देश काल की धारा बदल दी। यह सूची बड़ी लम्बी है। गुरु निश्छल, प्रपंचों से दूर और वीतराग तपस्वी हुआ करते थे। समय बीतने के साथ शिक्षण और दीक्षा के स्वरूप और गरिमा में बदलाव आता गया। गुरु की संस्था समाज का दायित्व थी और गुरु स्वतंत्र रहता था।
उसका कार्य चिंतन, मनन और लोक-कल्याण के लिए अपनी साधना से ज्ञान को उपलब्ध कराना था। बदलते दौर में गुरु की महिमा घटनी शुरू हुई। व्यवस्था के अंतर्गत वह नौकर-चाकर बन गया। उसकी प्रवृत्ति बदलने लगी और ज्ञान अर्जित करने की जगह वह कमाई करने लगा। शैक्षिक संस्थाओं के सरकारीकरण और फिर निजीकरण के साथ शिक्षा जगत पर बाज़ार का असर शुरू हुआ। शिक्षा व्यापार का रूप लेने लगी और विद्यार्थी अंतत: धनार्थी बनता गया। अर्थ की अंतहीन स्पृहा ने शिक्षा जगत को आग़ोश में लेना शुरू किया। धर्म की परिधि में विद्या और अर्थ की चिंता करने की हिदायत बिसरती गयी। आज प्रवेश, परीक्षा, उपाधि, नौकरी और शोध-प्रकाशन हर क्षेत्र में शार्टकट से काम हो जाय इसके जुगाड़ में शिक्षक और शिक्षार्थी व्यस्त हो रहे हैं। साहित्यिक चोरी (प्लैगेरिज़म) किस तरह रोग की तरह फैला है सर्वविदित है। इन सबके फलस्वरूप शिक्षा के मानक गिरते जा रहे हैं। इन सबके बीच शिक्षक की भूमिका प्रश्नांकित होने लगी है।
आज जिनको शिक्षक की नौकरी मिल गयी है, वे प्रोन्नति और अधिकाधिक रुपया कमाने की जुगत में लग गए हैं। ऐसे शिक्षकों की भी अच्छी संख्या है जो बिना पढ़ाए, बिना पढ़े बिना काम किए दक्षिणा ले रहे हैं और ऐसा करने के लिए उनके पास उचित कारण और तर्क भी मौजूद रहते हैं। अनेक शिक्षा संस्थान ऐसे भी हैं जिनमें अनेक कारणों से वर्षों से अध्यापकों के पद खाली पड़े हैं और शिक्षा हो रही है। जो अध्यापक हैं भी उनको शिक्षण के अतिरिक्त दूसरे कामों में व्यस्त कर दिया जाता है जो सरकार द्वारा समय-समय पर सुपुर्द किए जाते हैं। इस दृष्टि से प्राथमिक स्कूलों की हाल सबसे बदतर है। अब किस्म-किस्म के निजी शिक्षा संस्थानों की भी बाढ़ आ गयी है और उनकी गुणवत्ता और व्यवस्था की अलग व्यथा-कथा है। उनमें शोषण और पीड़ा की कहानियाँ अक्सर सुनाई पड़ती हैं।
शिक्षक की तैयारी के लिए शिक्षक-शिक्षा का विस्तार हुआ और अब हज़ारों की संख्या में प्रशिक्षण संस्थान खुल चुके हैं जो अनियंत्रित रूप से अध्यापक पैदा कर रहे हैं। उनमें अधिकांश की गुणवत्ता संदिग्ध है। वैसे भी ये संस्थाएँ आज भी अधिकांशत: व्यवहारवादी उपागम के अनुसार अध्यापन को स्वीकार करती है। फलत: अध्यान एक ‘रूटीन जाब’ के रूप में ग्रहण लिया जाने लगा है और उनमें सृजनात्मक मानस ढालने की लगन कम ही दिखती है। विकल्प के रूप में उभर रहे सामाजिक निर्माणवादी उपागम के लिए जिस उर्वर परिवेश की आवश्यकता होती है वह प्रचलित नौकरशाही की जकड़ में अधिकांश संस्थाओं में दम तोड़ता दिखता है। थोड़ी-सी संस्थाएँ अपवाद हैं जहां नए प्रयोग होते हैं। शिक्षकों के लिए जो पेशेवर (प्रोफेशनल) दृष्टि और मानक चाहिए वे अनुपस्थित ही रहते हैं। सच्चाई यह है कि शिक्षक सिर्फ़ पाठ्य चर्या के क्रियान्वयन से तालुक रखते हैं, नीति-निर्माण के हिस्सेदार नहीं होते हैं। आवश्यकता है कि अध्यापकों में स्वाध्याय और प्रयोग की लालसा की प्रवृत्ति विकसित हो और उन्हें उसका अवसर भी दिया जाय।
आज के युवा वर्ग की पसंद को देखें तो वे अध्यापन को पसंदीदा व्यवसाय नहीं मानते। जिसे कुछ नहीं मिलता वह थक हार कर बेमन से शिक्षक के कार्य की ओर मूड जाता है। जिस कर्तव्य बोध की ज़रूरत देश के भावी नागरिक के निर्माण के लिए अपेक्षित है वह ऐसे मजबूर और विवश अध्यापकों में नहीं मिलता। ये शिक्षक अपनी छवि के लिए चिंतित, नौकरी चलते रहने तक रुचि रखने वाले वेतन लेने वाले कर्मचारी के रूप में ही अपने को देखते हैं। युवा वर्ग को अध्यापकी में उन्नति और रुतबे के अवसर नहीं दिखते। इस बात से कि अध्यापक में भी मूल्य हों और वे सत्य, अहिंसा, सदाचार, भाई-चारा को बनाएँ बढ़ाएँ शायद ही किसी को गुरेज़ हो, परंतु संस्थाओं का ढाँचा शिक्षक को नियंत्रित करता है और आवश्यक स्वायत्तता नहीं देता।
ऐसे में अध्यापक हतोत्साहित हो कर यथास्थिति बनाए रखने में ही भलाई देखते हैं। नवाचार का प्रश्न छूट जाता है और रूटीन ढंग से अध्यापन अनुसंधान चलता रहता है। आज शिक्षालयों की संस्कृति में सीखने और समझने की जगह अंक और परीक्षा ही मुख्य सरोकार होते जा रहे हैं।
चूँकि किसी भी नीति का क्रियान्वयन अंतत: शिक्षक ही करता है अध्यापकों की तैयारी और वृत्तिक विकास पर ध्यान देना आवश्यक है। अध्यापक को यह समझना होगा कि वह दानदाता की जगह समानुभूति की दृष्टि अपनाए। वह नौकर नहीं है। उसे ज्ञान के प्रति निष्ठावान श्रेष्ठ मनुष्य को तैयार करने की ज़िम्मेदारी दी गयी है। शिक्षालय अब मूल्य आधारित संस्था नहीं रहे। वहाँ अध्यापक अपने ज्ञान से कमाई करता है। ज्ञान की वृद्धि उसके एजेंडा पर नहीं है। यह उस नज़रिए के कारण है जिसके चलते हम विकास को अक्सर केवल आर्थिक विकास के पैमानों पर ही आंकते हैं। यह एकांगी सोच है। देश किधर जा रहा है और किधर जाना श्रेयस्कर है इस पर भी सोचने की ज़रूरत है। वर्तमान परिवेश और चुनौतियों की भी अनदेखी नहीं की जा सकती। शिक्षक और विद्यार्थी की अंत:क्रिया अब सूचना प्रौद्योगिकी से अनिवार्य रूप से प्रभावित हो रही है। इस बदलाव के साथ समायोजन करना पड़ेगा और शिक्षक को अपने कौशलों को समृद्ध करना होगा।
अध्यापक-शिक्षा किसी भी शिक्षा व्यवस्था की रीढ़ होती है। इसकी गुणवत्ता को लेकर आज व्यापक असंतोष व्याप्त है। हम अच्छे शिक्षक नहीं दे पा रहे हैं। अध्यापक शिक्षा का बाज़ारीकरण हो गया है और इसकी व्यवस्था लचर हो चली है, इससे जुड़ी अकादमिक गतिविधियाँ कमजोर हैं और फ़ौरी तौर पर गाहें बगाहे कुछ होता रहता है। दूर-शिक्षा द्वारा शिक्षक प्रशिक्षण और निजी प्रशिक्षण संस्थानों की बाढ़ को देख कर यही लगता है कि शिक्षण व्यवसाय की साख के साथ मजाक बनता जा रहा है। कहाँ तो अपेक्षा थी कि पेशेवर या प्रोफ़ेशनल अस्मिता का विकास होगा, शिक्षक का आत्म-गौरव बढ़ेगा, मननशील अभ्यास का अवसर होगा पर राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद इन सब दृष्टियों से नाकाम रही है। यह उधारी के सलाहकारों की बदौलत चल रही है मुख्य रूप से तकनीकी खानापूरी करते हुए मशरूम-सी बढ़ती शिक्षण संस्थाओं को मान्यता देना ही इसका काम हो गया है जिसे प्रायः नौकरशाह के निर्देशन में चलाया जाता है। अकादमिक उन्नयन की अभीप्सा भी चाहिए। आज ऐसे एकीकृत अध्यापक शिक्षा के कार्यक्रम चाहिए जिनमें सिद्धांत और अभ्यास, विषय और शिक्षण शास्त्र पर बल हो। इसे समावेशी और बहु अनुशासनात्मक रखना होगा। पाठ्यचर्या विकास और अकादमिक गतिविधि में स्वायत्तता और वित्तीय पारदर्शिता भी जरूरी होगी।
आज देश को विश्व गुरु बनाने की अभिलाषा व्यक्त की जाती है। इस उद्देश्य के लिए पूर्णकालिक समर्पित शिक्षक चाहिए जो अपने आचरण से प्रेरित करें और आत्म निर्भर भारत के निर्माण के लिए आवश्यक मूल्यबोध और सृजनात्मक प्रवृत्ति वाले हों। आज के परिवेश में एक शिक्षक में धैर्य, समानुभूति, अनुकूलन की क्षमता, संचार की दक्षता, संलग्नता के साथ वास्तविक जीवन में सीखने और ज्ञान को साझा करने की प्रवृत्ति, आजीवन सीखते रहने का उत्साह, अंतरानुशासनिक दृष्टि, ईमानदारी, समर्पण, नैतिकता और अध्ययन विषय के प्रति प्रेम की आवश्यकता है। विद्या को पृथ्वी पर सबसे पवित्र माना गया है और गुरु उसका संरक्षक और सवर्धक है। आज शिक्षक की गरिमा और प्रतिष्ठा को स्थापित करने की आवश्यकता है।
(लेखक, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)