“मैंअकेला ही चला था जानिब-ए-मंजिल मगर लोग मिलते गए और कारवां बनता गया”। यह कांशीराम पर सटीक बैठता है। दूसरी तरफ, “लोग निकलते गए और कारवां सिमटता गया”। यह मायावती पर सटीक बैठता है. दरअसल, कांशीराम के समय के ‘चेहरे’ अब बहुजन समाज पार्टी से नदारद हैं। सेकंड लाइन लीडरशिप वाले नेता एक-एक करके पार्टी छोड़ गए या तो उन्हें निकाल दिया गया। अब सिर्फ सतीश चंद्र मिश्रा ही मायावती के बाद बड़े नेता बचे हैं। वह राष्ट्रीय महासचिव हैं और उनका दखल राष्ट्रीय राजनीति में होता है. लेकिन बसपा में दूसरी लाइन की बड़ी जमात शुरू से ही नहीं बन पा रही है।
संस्थापक कांशीराम के मूवमेंट और उसके बाद जुड़े ज्यादातर नेता अब पार्टी में नहीं हैं। रामअचल राजभर और लालजी वर्मा के निष्कासन के साथ ही बसपा स्थापना से लेकर संघर्ष से जुड़े ज्यादातर नेता बसपा से बाहर हैं। इनमें से कई नेता ऐसे थे जिनका प्रदेश स्तर पर अच्छा प्रभाव होता था. मायावती के बढ़ते प्रभाव के बाद एक-एक नेता बाहर हो गए हैं। शुरुआत के दिनों से देखें तो राजबहादुर, आरके चौधरी, नसीमुद्दीन सिद्दीकी, स्वामी प्रसाद मौर्य, बाबू सिंह कुशवाहा, दद्दू प्रसाद, दीनानाथ भाष्कर, सोनेलाल पटेल, रामवीर उपाध्याय, जुगुल किशोर, ब्रजेश पाठक, जयवीर सिंह, रामअचल राजभर, लालजी वर्मा, इन्द्रजीत सरोज जैसे नेताओं की लंबी-चौड़ी सूची है। यह बसपा में दूसरी लाइन के बड़े नेता हुआ करते थे। यह वे लोग हैं जो समाज में बसपा मूवमेंट को आगे बढ़ाने का काम करते थे। लेकिन आज यह लोग पार्टी में नहीं हैं और इनमें से कुछ दूसरी पार्टी में स्थापित होकर बड़े पदों पर हैं।
बसपा जबसे बनी है, उसके एक साल बाद ही जिनको शुरुआत में कांशीराम के सुझाव पर मायावती ने सिपाहसालार बनाया था, उसमें राजबहादुर और आरके चौधरी बहुत विश्वासपात्र थे। यह लोग बसपा मिशन को आगे बढ़ाने में लगे थे। लोग इनकी बात सुनते थे। यह लोग ऐसे थे, जिन्होंने बसपा की जड़ों से लोगों को जोड़ा था। इनके हटते ही लोगों को बड़ा झटका लगा था। इस पार्टी में जितने भी लोग ऊपर चढ़े हैं, उनको तुरंत पार्टी से बाहर किया जाता है। 2012 के पहले वाली सरकार के जितने मंत्री थे, वह बाहर हो गए। चाहे बाबू सिंह कुशवाहा हों चाहे नसीमुद्दीन सिद्दीकी हों या स्वामी प्रसाद मौर्या हों। रामवीर उपाध्याय और ब्रजेश पाठक भी अब पार्टी में नहीं हैं। धीरे-धीरे ऊपर चढ़ने वालों को निकाल दिया जाता है, लालजी वर्मा और राम अचल राजभर भी कांशीराम के जमाने के ही हैं जिन्हें बाहर निकाल दिया गया।
दरअसल, मायावती का राजनीतिक धोखे का पुराना इतिहास है। उन्होंने अब तक जितनी भी पार्टियों के साथ गठबंधन किया किसी के साथ उनका समझौता सफल नहीं रहा। वजह, मायावती जल्दी किसी पर भरोसा नहीं करती हैं। इसलिए कांशीराम के समय के मिशन से निकले लोग या तो निकाले जा रहे हैं या खुद पार्टी छोड़ रहे हैं। यह कहीं ना कहीं उनकी राजनैतिक अपरिपक्वता को दर्शाता है।