◆ श्वेता गोयल
दुनिया भर में 1 अप्रैल को अप्रैल फूल (मूर्ख दिवस) मनाया जाता है। इस दिन हल्के-फुल्के हँसी-मजाक के सहारे लोग एक-दूसरे को ‘मूर्ख’ बनाकर माहौल को मनोरंजक बनाने का प्रयास करते हैं। बहुत बार ऐसे वाकये भी सामने आते रहे हैं, जब दूसरों को मूर्ख बनाने की कोशिश में कुछ लोग स्वयं ही मूर्ख बन गए। कभी-कभार ऐसे मनोरंजक अवसर भी देखे गए हैं, जब मूर्ख दिवस के अवसर पर एक साथ हजारों की संख्या में लोग ‘मूर्ख’ बन गए और वास्तविकता जानने के बाद हँसते हुए अपने-अपने घर लौट गए। सामूहिक तौर पर लोगों को मूर्ख बनाने या लोगों का मनोरंजन करने के लिए कभी-कभार दुनिया के विभिन्न हिस्सों में कुछ अखबारों तथा अन्य संचार माध्यमों के जरिये भी अनोखे तरीके अपनाए जाते रहे हैं।
मूर्ख दिवस दुनियाभर में हँसने-हँसाने और हल्के-फुल्के मजाक के जरिये लोगों को बेवकूफ बनाने के दिन के रूप में सदियों से मनाया जाता रहा है। लेकिन दावे के साथ यह नहीं कहा जा सकता कि मूर्ख दिवस मनाए जाने की परंपरा कब और कैसे शुरू हुई थी। हालांकि माना यह जाता है कि इस दिवस को मनाने की शुरुआत फ्रांस में 1 अप्रैल, 1564 से शुरू हुई थी, जब वहां के राजा ने चटपटी और मनोरंजक बातों के माध्यम से लोगों के बीच मित्रता और प्रेम भाव की स्थापना के लिए एक अनोखी सभा का आयोजन कराया था। राजा द्वारा उस अनोखी सभा के बाद अनोखा फैसला लिया गया कि अगले साल से ऐसी ही सभा का आयोजन एक अप्रैल के ही दिन प्रतिवर्ष होगा, जिसमें सबसे ज्यादा मूर्खतापूर्ण हरकतें करने वाले शख्स को ‘मास्टर ऑफ फूल’ की उपाधि से सम्मानित किया जाएगा।
बहरहाल, समय-समय पर अनेक ऐसे प्रसंग सामने आते रहे हैं, जब दुनिया की कुछ बड़ी-बड़ी शख्सियतें भी इस दिन लोगों को मूर्ख बनाने का प्रयास करती देखी गईं। ऐसा ही एक दिलचस्प वाकया आधुनिक हिन्दी साहित्य के जनक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के साथ भी जुड़ा हुआ है। दरअसल उन्होंने एक बार ऐसी अनोखी घोषणा की कि अनायास ही उनकी बातों पर विश्वास कर लाखों लोग एक साथ मूर्ख बन गए। अब भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने अगर कोई घोषणा की थी तो लोगों का उनकी बातों पर आंख मूंदकर भरोसा करना भी स्वाभाविक ही था लेकिन लोगों को क्या पता था कि वे उनके साथ मजाक कर उन्हें अप्रैल फूल रूपी हंसी-मजाक भरा तोहफा दे रहे हैं। भारतेन्दु ने घोषणा करते हुए कहा कि पहली अप्रैल के दिन एक बहुत ही पहुंचे हुए सिद्ध महात्मा काशी में गंगा नदी को पैदल ही पार करेंगे। अब ऐसी चमत्कारिक घटना को भला कौन व्यक्ति को अपनी आंखों से देखने का मौका गंवाना चाहता। इसीलिए काशी में गंगा के तट पर उनके द्वारा बताए गए दिन और नियत समय पर कई वरिष्ठ ब्रिटिश अधिकारियों सहित लाखों लोगों की भीड़ एकत्रित हो गई।
बताए गए समय पर भारतेन्दु हरिश्चन्द्र बनारस के घाट पर पहुंच गए। उनके साथ भगवा वस्त्र धारी एक महात्मा भी थे, जो चेहरे से कोई सिद्धपुरुष ही प्रतीत हो रहे थे। भारतेन्दु ने उन महात्मा के साथ घाट पर पहुंचकर वहां उपस्थित लाखों लोगों की भीड़ का अभिवादन किया और घोषणा की कि महात्मा जी की तबीयत अभी कुछ खराब है, इसलिए वे गंगा नदी के उस पार जाने के लिए तो नाव का सहारा लेंगे लेकिन वहां से वापस लौटते समय गंगा नदी को पैदल पार करके ही इस तरफ तट तक आएंगे। अब भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की बात पर भला कौन अविश्वास करता, इसलिए लोग दम साधे उस पल की प्रतीक्षा करने लगे, जब उन्हें पैदल नदी पार करते उन अलौकिक सिद्ध महात्मा के दर्शन होते।
आखिरकार भारतेन्दु हरिश्चन्द्र संन्यासी के साथ एक नाव में सवार होकर गंगा नदी में दूसरे छोर की ओर जाने के लिए निकल पड़े लेकिन यह क्या! अचानक वहां एकत्रित लोगों के साथ कुछ ऐसा हुआ, जब उन्होंने स्वयं को ठगा सा महसूस किया और वे हँसते-खिलखिलाते वापस लौट गए। दरअसल गंगा में थोड़ा आगे बढ़ने पर भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने नाव से ही ‘मूर्ख दिवस’ का एक बड़ा सा बैनर हवा में लहरा दिया और ब्रिटिश अधिकारियों सहित लाखों लोगों को यह समझते देर नहीं लगी कि भारतेन्दु ने पहली अप्रैल के दिन उन्हें सामूहिक रूप से ‘मूर्ख’ बनाने के लिए उनके साथ यह मजाक किया।
(लेखिका शिक्षक और स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)