छठ : सूर्योपासना की भारतीय संस्कृति और विश्व परम्परा

                                            – डॉ. जंग बहादुर पाण्डेय सृष्टि के सभी प्राणियों में मनुष्य सर्वाधिक चिंतनशील एवं क्रियाशील प्राणी है। इसकी तीव्र बुद्धि ने इसे विकास की सीढ़ियां प्रदान की, लेकिन यह मानना होगा कि अभी भी विज्ञान ने हमारे भीतर की कोमल भावनाओं को ध्वस्त नहीं किया है। हम सुख में मुस्कुराते हैं और दुख में आठ आठ आंसू बहाते हैं। इन्हीं सुख-दुखों की भावाभिव्यक्ति से पर्व त्योहारों का श्रीगणेश हुआ है।

भारत धर्म प्रधान देश है। आध्यात्म के प्रति महर्षियों की वाणी में धर्म की कीर्ति लहराती थी, नैतिकता का संदेश गूंजता था। हमारा दृष्टिकोण मुख्य रूप से राजनैतिक, आर्थिक अथवा भौतिक न होकर धार्मिक नैतिकतावादी और आध्यात्मिक था। धर्म की दृष्टि से अपने महान उपलब्धियों के दिनों को हमने पर्व त्यौहार की संज्ञा दी है। सभ्यता के विकास के चरण में उन क्षणों का महत्वपूर्ण योग है।

भारतीय संस्कृति में सूर्योपासना की प्राचीन परंपरा रही है। छठ पर्व उसी परंपरा का विशिष्ट अनुपालन है। यों तो भारतीय वांग्मय में तैंतीस कोटि देवों की परिकल्पना की गई है, परंतु एक ही देवता आज प्रत्यक्ष दर्शित हैं और वे हैं भुवन भास्कर दिनमणि दिनेश जिनके प्राकट्य से संसार ज्योतिर्गमय हो जाता है, जिनकी रश्मियों से जड़ चेतन सभी लाभान्वित हैं और जिनकी महिमा का गान जगत के सभी प्राणी निर्द्वन्द्व भाव से करते हैं। उन्हीं भुवन भास्कर की अर्चना-वंदना हेतु छठ पर्व मनाया जाता है। यह भक्तों का दिनकर के प्रति नमन का पर्याय है।

आमतौर पर छठ व्रत समस्त उत्तर भारत में मनाया जाता है परंतु विशेषकर बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश में इस पर्व को मनाने की विशेष प्रथा है। दीपावली के बाद छह दिन का वातावरण रसमय रहता है। कार्तिक कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को नरक चतुर्दशी मनाया जाता है, अमावस्या के दिन दीपावली। कार्तिक शुक्ल पक्ष को भाई दूज, कायस्थ इस दिन चित्रगुप्त पूजा मनाते हैं और फिर छठ का पवित्र पर्व आता है।

चतुर्थी तिथि को लोक भाषा में नहान-खाय कहा जाता है। इस दिन छठ व्रती गण कद्दू की सब्जी, चने की दाल और अरवा चावल का भात बतौर प्रसाद ग्रहण करते हैं। यह सारा कुछ पवित्र ढंग से पकाया जाता है। पंचमी तिथि को ‘लोहड़ा’ कहा जाता है। व्रती गण इस दिन, दिन भर उपवास करते हैं, शाम में खीर-पूड़ी का प्रसाद ग्रहण करते हैं। इस प्रसाद को पास-पड़ोस, बंधु-बांधव, हित-हितैषी भी सप्रेम ग्रहण करते हैं। फिर आता है षष्ठी एवं सप्तमी का महापर्व। षष्ठी का अर्घ्य अस्ताचलगामी सूर्य को दिया जाता है। उदित सूर्य को सप्तमी की सुबह अर्घ्य दिया जाता है। ऐसा माना जाता है कि शाम का अर्घ्य छठी माई को दिया जाता है और सुबह का अर्घ्य भुवन भास्कर को दिया जाता है। शाम में गाया जाने वाला गीत छठी मैया होहूं न सहाई…। प्रातः काल सुरुज देव को होहूं न सहाई… एक गीत में बदल जाता है।

भारत में सूर्योपासना वैदिक काल से चली आ रही है। गायत्री मंत्र के रूप में जिस वैदिक वाणी का जप करते हैं :- *ॐ भूर्भुव: स्व:। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो न प्रचोदयात्। यजुर्वेद -36-3।

बिहार के तीन सूर्य मंदिर : औरंगाबाद जिले में देवमूंगा, भोजपुर में देवचंदा और रोहतास में देव-पड़सर। काल क्रमानुसार यह मंदिर भी 12वीं शताब्दी के प्रतीत होते हैं। ऐसा विश्वास किया जाता है कि स्वयं विश्वकर्मा ने अपने हाथों इन सूर्य मंदिरों का निर्माण किया है। छोटानागपुर में संस्कृति विहार द्वारा बुण्डू में नवनिर्मित सूर्य मंदिर अनुपम है। इस मंदिर का भूमि पूजन सूर्य सप्तमी दिन रविवार 5 नवंबर, 1989 को हुआ था तथा शिलान्यास ज्योतिर्पीठीधीश्वर शंकराचार्य स्वामी वासुदेवानंद जी ने किया और प्राण प्रतिष्ठा ब्रह्मलीन स्वामी वामदेव जी ने की थी।

यह भारत का विराट सूर्य मंदिर है। इसकी लंबाई 150 फीट, चौड़ाई 60 फीट तथा ऊंचाई 108 फीट है। शांति सुरमय वातावरण में छठ पूजन के लिए सूर्य मंदिर के पश्चिम की ओर निर्मल जल से भरा सूर्य सरोवर है। ओड़िशा में कोणार्क का सूर्य मंदिर भी अपनी भव्यता एवं वास्तुकला के लिए अनुपम है।

छठ हिंदुओं का एक परम पवित्र पर्व है। सचमुच छठ पर्व की पवित्रता यदि मानव जीवन में आ जाए तो निश्चित रूप से मानव जीवन भी सूर्यमय एवं ऊर्जामय हो जाएगा। सूर्य केवल प्रकाशदाता ही नहीं वरन सर्वदाता की तरह मानव जीवन में समाहृत है। किसी कवि ने ठीक ही कहा है-

भारत की संस्कृति में यदि सुंदर पर्वों का मेल न होता।

तो निश्चय ही भारपूर्ण मानव जीवन भी खेल न होता।

सूर्योपासना में अर्घ्य देने का मंत्र है-

ऐहि सूर्यो सहस्त्रांशो, तेजराशि जगत्पते।

अनुकम्पय माम् भक्तया, अर्घाय दिवाकर:।।

(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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