इतिहास के पन्नों में 16 फरवरीः यूं ही नहीं हैं हिंदी सिनेमा के पितामह दादा साहब फाल्के

देश-दुनिया के इतिहास में 16 फरवरी तमाम अहम वजह से दर्ज है। इस तारीख का महत्व हिंदी सिनेमा के पितामह दादा साहब फाल्के के जीवन से भी है। इसी तारीख को 1944 में दादा साहब ने इस फानी दुनिया को अलविदा कहा था। महत्वपूर्ण यह है कि उनकी मौत एक गुमनाम शख्स की तरह जरूर हुई पर तब तक उनका शुरू किया हुआ फिल्मों का कारवां काफी आगे निकल चुका था। फिल्मों की बदौलत कुछ लोगों ने बड़ा नाम और पैसा कमा लिया था। दादा साहब का पूरा नाम घुंडीराज गोविंद फाल्के था।

यह काबिल-ए-गौर है कि भारत के सिनेमा का इतिहास पश्चिम के सिनेमा के इतिहास से बहुत बाद का नहीं है। 1895 में लुमियर बंधु ने दुनिया की पहली चलती-फिरती फिल्म बनाई थी। इसकी अवधि मात्र 45 सेकंड की थी। इसका प्रदर्शन पेरिस में किया गया था। एक-दो साल के बाद 1896-97 में यह भारत में प्रदर्शित की गई।

इसके करीब 15 साल बाद 1910 में बंबई (अब मुंबई) के अमेरिका-इंडिया पिक्चर पैलेस में ‘द लाइफ ऑफ क्राइस्ट’ दिखाई गई। वो क्रिसमस का दिन था। थियेटर में बैठे फाल्के ने तालियां पीटते हुए निश्चय किया कि वो भी ईसा मसीह की तरह भारतीय धार्मिक और मिथकीय चरित्रों को रूपहले पर्दे पर जीवंत करेंगे। इसके बाद उन्होंने बंबई में मौजूद थियेटरों की सारी फिल्में देख डालीं। दो महीने तक वो हर रोज शाम में चार से पांच घंटे सिनेमा देखा करते थे। बाकी समय में फिल्म बनाने की उधेड़बुन में लगे रहते थे। इससे उनके सेहत पर असर पड़ा और वो करीब-करीब अंधे हो गए।

तब की मशहूर पत्रिका नवयुग में उन्होंने ‘मेरी कहानी मेरी जुबानी’ शीर्षक से लेख लिया। इसमें उन्होंने कहा शायद ही वो किसी दिन तीन घंटे से ज्यादा सो पाए। इसका असर यह हुआ कि वो करीब-करीब अंधे हो गए थे। डॉक्टर के उपचार और तीन-चार चश्मों की मदद से वो इस लायक हो पाए कि फिल्म बनाने को लेकर अपने जुनून में जुट पाए।

उन्होंने पहली भारतीय फिल्म बनाने के लिए अपनी सरकारी नौकरी छोड़ दी। वो भारत सरकार के पुरातत्व विभाग में फोटोग्राफर थे। वो पेशेवर फोटोग्राफर बनने के लिए गुजरात के गोधरा शहर गए थे। वहां दो साल रहे लेकिन अपनी पहली बीवी और एक बच्चे की मौत के बाद उन्होंने गोधरा छोड़ दिया। ऐसा कहा जाता है कि वहां पर फाल्के साहब का स्टेशन रोड में एक स्टूडियो था। दंगों के लिए बदनाम हो गए इस शहर को अब शायद ही कोई फाल्के साहब की वजह से भी जानता हो।

भारतीय सिनेमा का कारोबार आज करीब डेढ़-दो अरब रुपये का हो गया है। हजारों लोग इस उद्योग में हैं लेकिन दादा साहब फाल्के ने 20-25 हजार रुपये की लागत से इसकी शुरुआत की थी। तब भारत में इतनी रकम भी एक बड़ी रकम होती थी। इसे जुटाने के लिए फाल्के साहब को अपने एक दोस्त से कर्ज लेना पड़ा और अपनी संपत्ति एक साहूकार के पास गिरवी रखनी पड़ी थी।

भारत की पहली फिल्म राजा हरिश्चंद्र बनाने की दादा साहब फाल्के की कोशिशें अपने-आप में संघर्ष की गाथा है। उस वक्त फिल्मों में महिलाएं काम नहीं करती थीं। पुरुष ही नायिका के किरदार निभाया करते थे। दादा साहब फाल्के नायिका की तलाश में रेड लाइट एरिया की खाक भी छान चुके थे। वहां भी कोई महिला तैयार नहीं हुई। हालांकि भारतीय फिल्मों में काम करने वाली पहली दो महिलाएं फाल्के की ही फिल्म मोहिनी भष्मासुर से भारतीय सिनेमा में आई थीं। ये दोनों अभिनेत्री थीं दुर्गा गोखले और कमला गोखले।

भारत में फिल्म निर्माण में फाल्के साहब के पूरे परिवार ने योगदान दिया। विश्वयुद्ध के दौरान फाल्के के सामने एक वक्त ऐसा आया जब वो पाई-पाई को मोहताज हो गए। उस वक्त वो ‘श्रियाल चरित्र’ का निर्माण कर रहे थे। उनके पास कर्मचारियों को वेतन देने के लिए पैसे नहीं थे।

‘मेरी कहानी मेरी जुबानी’ में फाल्के साहब ने लिखा है कि उस वक्त उनकी पत्नी सरस्वती बाई ने आगे बढ़ कर उनसे कहा- ‘इतने से परेशान क्यों होते हो? क्या चांगुणा का काम मैं नहीं कर पाऊंगी? आप निर्जीव तीलियां परदे पर नचाते हैं, फिर मैं तो मानव हूं, आप मुझे सिखाइए। मैं चांगुणा का काम करती हूं लेकिन श्रियाल आप बनिए। इस फिल्म में बालक चिलया की भूमिका दादा साहब फाल्के के बड़े बेटे निभा रहे थे। 19 साल के अपने करियर में दादा साहब ने कुल 95 फिल्म और 26 लघु फिल्म बनाईं। गंगावतरण उनकी आखिरी फिल्म थी। यह फिल्म 1937 में प्रदर्शित हुई।यह उनकी पहली और आखिरी बोलती फिल्म भी थी।

साल 1938 में फिल्म इंडस्ट्री ने सरदार चंदूलाल शाह की अगुवाई में अपनी सिल्वर जुबली मनाई। फाल्के साहब को भी बुलाया गया लेकिन उस सम्मान के साथ नहीं, जिसके वो हकदार थे। वो आम श्रोता-दर्शकों के भीड़ में बैठे थे। वी शांताराम ने उन्हें पहचाना और सम्मान के साथ स्टेज पर ले गए।समारोह के आखिरी दिन वी शांताराम ने निर्देशकों, निर्माताओं और कलाकारों से अपील की वे सब मिलकर चंदा दें ताकि दादा साहब फाल्के के लिए एक घर बनाया जा सके। अपील के बावजूद बहुत कम पैसे इकट्ठा हो सके लेकिन वी शांताराम ने अपनी प्रभात फिल्मस कंपनी की ओर से उसमें अच्छी खासी रकम मिलाकर फाल्के साहब को घर बनाने के लिए दी। और नासिक की गोले कॉलोनी में उन्हें एक छोटा सा बंगला आखिरी वक्त में नसीब हो सका। इस बंगले में वो ज्यादा दिन नहीं रह सके और 1944 में उनका निधन हो गया। 1970 उनका जन्म शताब्दी वर्ष था। इसी साल भारत सरकार ने उनके नाम पर सिनेमा का सबसे बड़ा पुरस्कार देने की घोषणा की।

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