इतिहास के पन्नों में : 07 अगस्त – भारतीयों से नफरत करने वाला युगांडा का कसाई

पूर्वी अफ्रीकी देश युगांडा की जब कभी चर्चा होगी तानाशाह ईदी अमीन की क्रूरता का जिक्र जरूर आएगा। युगांडा में ईदी अमीन के आठ वर्षों का कार्यकाल इंसानी तारीख का बदनुमा उदाहरण है। इस दौरान करीब पांच लाख लोगों को मार डाला गया।

युगांडा की सत्ता पर कब्जा जमाने के बाद ईदी अमीन की सनक का पहला शिकार बने वहां बसे भारतीय उप महाद्वीप के लोग। ईदी अमीन ने भारतीय मूल के लोगों को युगांडा छोड़ने के लिए 90 दिनों का समय दिया गया था। देश छोड़ते समय वे अपने साथ दो सूटकेस सामान और केवल 50 पाउंड ले जाने की अनुमति थी।

90 हजार भारतीय मूल के लोगों को घर-बार जगह-जमीन व संपत्ति छोड़ कर वहां से भागना पड़ा। इनमें गुजरात व पंजाब से ताल्लुक रखने वाले भारतीयों की संख्या सबसे अधिक थी। कई दशकों से युगांडा की संपत्ति का 20 फीसदी हिस्सा एशियाई लोगों के पास था। देश छोड़ने के फरमान के साथ इन लोगों ने सबकुछ छोड़ कर ब्रिटेन, अमेरिका और कनाडा की शरण ली।

दरअसल 1896 से 1901 के बीच ब्रिटिश सरकार ने रेलवे के निर्माण के लिए मजदूर के रूप में भारतीयों को युगांडा भेजा था। इनमें से ज्यादातर लोगों ने वहीं बसने का फैसला कर लिया और चीनी, चाय और कॉफी उगाने में माहिर हो गए। मैन्युफैक्चरिंग सहित दूसरे कामों में भी धीरे-धीरे वहां की अर्थव्यवस्था का मजबूत हिस्सा बन गए। खासतौर पर युगांडा की राजधानी कंपाला में भारतीय व्यवसायियों की धाक थी। इसका दूसरा पहलू भी था। स्थानीय अफ्रीकियों को लगता था कि उनके अधिकारों पर कब्जा कर लिया गया है। एशियाई मूल के लोग उनका शोषण कर रहे हैं।

9 अक्टूबर 1962 को युगांडा को ब्रिटेन से आजादी मिली और मिल्टन ओबोटे वहां के पहले प्रधानमंत्री और एडवर्ट मोटेसा राष्ट्रपति बनाए गए। जल्द ही ओबोटे ने मोटेसा को राष्ट्रपति पद से हटाकर पूरी सत्ता अपने हाथों में ले ली। इस सत्ता परिवर्तन में कई एशियाई मूल के लोग ओबोटे की सरकार में सहयोगी बने। 1966 में राष्ट्रपति ने अपने भरोसेमंद ईदी अमीन को सेनाध्यक्ष बनाया। जिसने 1971 में ओबोटे का तख्ता पलट कर दिया।

अफ्रीका की काकवा जनजाति से ताल्लुक रखने वाले ईदी अमीन ने 07 अगस्त 1972 को फरमान जारी कर दिया कि तीन माह के भीतर जरूरी शर्तों के साथ तमाम एशियाई मूल के लोग युगांडा की सीमा से बाहर चले जाएं। जिसका व्यापक असर पड़ा और करीब 90 हजार भारतीयों को रातोंरात सबकुछ छोड़ कर देश से भागना पड़ गया। अमीन के इस फैसले को भारी जनसमर्थन मिला। स्थानीय अफ्रीकियों में खुशी की लहर दौड़ गई और वे अमीन के साथ एकजुटता प्रदर्शित करने में जुट गए।

हालांकि भारतीयों के वहां से निकल जाने के बाद युगांडा की अर्थव्यवस्था बुरी तरह बैठ गई। ईदी अमीन के खिलाफ स्थानीय लोगों का असंतोष बढ़ रहा था और इसी बीच अमीन ने तंजानिया के खिलाफ लड़ाई छेड़ दी जो उसके लिए भारी पड़ी। वह देश छोड़कर भाग खड़ा हुआ। पहले लीबिया में शरण ली और बाद में सऊदी अरब में। 2003 में यहीं उसकी मौत हो गई।

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