इतिहास के पन्नों में: 19 मई – भाषा के प्रकांड विद्वान का निधन

हिंदी के शीर्ष साहित्यकार, निबंधकार, आलोचक आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी को मुहावरेदार, सरल, संयत एवं बोधगम्य भाषा के लिए जाना जाता है। उन्होंने लेखन में संस्कृतनिष्ठ शब्दों के साथ उर्दू, फारसी, अंग्रेजी और देसज शब्दों का बखूबी प्रयोग किया। विशेषज्ञों ने उनकी भाषा को संस्कृतनिष्ठ साहित्यिक खड़ीबोली के रूप में रेखांकित किया है।

हिंदी के साथ अंग्रेजी, संस्कृत और बांग्ला के विद्वान आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का जन्म 19 अगस्त 1907 को उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के आरत दुबे का छपरा, ओझवलिया गांव में हुआ। भक्तिकालीन साहित्य के मर्मज्ञ द्विवेदी जी ने 1930 में शांति निकेतन से अध्यापन शुरू किया। जहां वे गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर और आचार्य क्षितिज मोहन सेन के प्रभाव में साहित्य का गहन अध्ययन भी किया।

शांति निकेतन में बीस वर्षों के अध्यापन के बाद उन्होंने 1950 में काशी हिंदू विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग के प्रोफेसर व अध्यक्ष के रूप में सेवाएं दीं लेकिन दस वर्षों बाद 1960 में वे विश्वविद्यालय की गुटों की प्रतिद्वंद्वता में निष्कासित कर दिये गए। जिसके बाद उन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय का रुख किया। यहां वे प्रोफेसर और हिंदी विभाग के अध्यक्ष रहे लेकिन जल्द ही दोबारा काशी हिंदू विश्वविद्यालय में हिंदी के विभागाध्यक्ष बनकर लौटे। 1970 में यहीं से सेवामुक्त हुए।

इन वर्षों के दौरान उन्होंने विस्तृत लेखन कार्य किया। उनकी आलोचनात्मक कृतियों में ‘सूर साहित्य’, ‘हिंदी साहित्य की भूमिका’, ‘प्राचीन भारत के कलात्मक विनोद’, ‘कबीर’, ‘नाथ संप्रदाय’, ‘हिंदी साहित्य का आदिकाल’, ‘हिंदी साहित्य का उद्भव और विकास’ प्रमुख हैं। जबकि उनके निबंध संग्रहों में प्रमुख रूप से ‘आलोक पर्व’, ‘अशोक के फूल’, ‘कल्पलता’, ‘मध्यकालीन धर्म साधना’ का उल्लेख मिलता है।

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी को 1957 में पद्मभूषण उपाधि से सम्मानित किया गया। 1973 में ‘आलोक पर्व’ निबंध संग्रह के लिए उन्हें साहित्य अकदमी पुरस्कार मिला। 4 फरवरी 1979 को पक्षाघात के शिकार द्विवेदी जी का 19 मई 1979 को दिल्ली में निधन हो गया।

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