बचपन बचाओ आंदोलन की अपील पर सुप्रीम कोर्ट ने आरोपित थानाध्यक्ष को भेजा जेल

नयी दिल्ली : सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश के ललितपुर जिले में थाने में एक दलित नाबालिग लड़की से सामूहिक दुष्कर्म के आरोपित थाना प्रभारी को जमानत देने के इलाहाबाद हाई कोर्ट के आदेश को रद्द करते हुए आरोपित को समर्पण करने और उसे न्यायिक हिरासत में भेजने का आदेश दिया। इलाहाबाद हाई कोर्ट के आदेश के खिलाफ बचपन बचाओ आंदोलन (एसोसिएशन फॉर वालंटरी एक्शन) ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की थी। तीन मई को दिए गए सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद बचपन बचाओ आंदोलन ने इसे एक पीड़िता को न्याय दिलाने की उसकी कोशिशों पर प्रसन्नता व्यक्त की है और सुप्रीम कोर्ट का आभार जताया है।

अपने निर्णय में न्यायमूर्ति ए.एस. बोपन्ना और न्यायमूर्ति संजय कुमार की खंडपीठ ने कहा, “यह बेहद गंभीर स्थिति है जहां सामूहिक दुष्कर्म की पीड़ित बच्ची न्याय के लिए थाने आई और आरोप है कि थाना प्रभारी ने भी उसके साथ थाने में दुष्कर्म किया।” अदालत ने आरोपित को सशर्त जमानत देने के इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले को रद्द करते हुए कहा कि इस मामले को सरसरी तौर पर देखने के बजाय गंभीरता से विचार की जरूरत थी। इस मुकाम पर हमें आरोपित को जमानत देने के फैसले को वाजिब ठहराने के पीछे कोई कारण या तर्क नहीं दिखता।

यह मामला उत्तर प्रदेश के ललितपुर जिले के पाली थाने में दर्ज हुआ था। 27 अप्रैल 2022 को दर्ज मामले में थानाध्यक्ष को ही आरोपित किया गय़ा था। इस मामले में 02 मार्च 2023 को इलाहाबाद हाई कोर्ट ने आरोपित थानाध्यक्ष को जमानत दे दी थी, जिसके खिलाफ बचपन बचाओ आंदोलन ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था।

सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ ने 3 मई के अपने आदेश में कहा, “ललितपुर मामले में एक भयावह स्थिति है जहां सामूहिक बलात्कार की पीड़िता नाबालिग न्याय की तलाश में थाने आई और आरोपित थाना प्रभारी ने थाने में ही उसके साथ फिर वही घिनौना अपराध किया।”

पुलिस अधिकारी की जमानत अर्जी खारिज होने को आपराधिक न्याय तंत्र के लिए महत्वपूर्ण बताते हुए वरिष्ठ अधिवक्ता और बचपन बचाओ आंदोलन के वकील एच.एस. फूलका ने कहा, “सुप्रीम कोर्ट ने बहुत स्पष्ट संदेश दिया है कि कानून लागू करने वाले पुलिसकर्मी यदि खुद अपराध में संलिप्त पाए जाते हैं तो उनके साथ कोई नरमी नहीं बरती जाएगी।”

बचपन बचाओ आंदोलन ने बच्चों की देखभाल और संरक्षण के लिए बनाए गए कानूनों पर अमल में सरकारी प्राधिकारियों की बुरी तरह विफलता को रेखांकित करते हुए अनुच्छेद 32 के तहत समादेश याचिका दायर की थी। याचिका में यौन शोषण से जुड़े मामलों के लटके रहने और पीड़ितों के कानूनी अधिकारों से समझौते के मुद्दे उठाए गए थे।

याचिका में 13 साल की बच्ची के साथ सामूहिक दुषकर्म का उल्लेख करते हुए बताया गया कि इस मामले में पांच महीने तक एफआईआर भी नहीं दर्ज की गई। पांच महीने बाद उस बच्ची के साथ उन दरिंदों ने दोबारा सामूहिक दुष्कर्म किया। इसके बाद बच्ची जब रिपोर्ट दर्ज कराने थाने पहुंची तो पुलिस एफआईआर दर्ज करने के अपने बुनियादी कर्तव्य के पालन में भी विफल रही। इतना ही नहीं, थाना प्रभारी ने थाने में उसके साथ दुष्कर्म कर पीड़िता की पीड़ा को कई गुना बढ़ा दिया। इसके बाद पीड़िता और उसके परिवार को लगातार धमकियां दी गईं और प्रताड़ित किया गया।

इन अमानवीय अत्याचारों के कारण बच्ची की पढ़ाई पर असर पड़ा और वह 10 महीने तक स्कूल नहीं जा पाई। बचपन बचाओ आंदोलन की इस याचिका के बाद पीड़िता को एक बोर्डिग स्कूल में भर्ती कराया गया जहां वह एक बार फिर से पढ़ाई शुरू करने में सक्षम हो पाई।

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