– प्रमोद भार्गव
पश्चिम बंगाल में राजनीतिक और सामाजिक हिंसा की जड़ें अत्यंत गहरी हैं। कांग्रेस, वामपंथी या तृणमूल, सत्ता किसी की रही हो, इन दलों की राजनीतिक संस्कृति हिंसा का ही पर्याय रही है। बीते साल हुए विधानसभा चुनाव में और इसके पहले पंचायत चुनाव में खूब हिंसा की वारदातें देखने में आती रही हैं।
बीरभूम जिले के रामपुरहाट में तृणमूल कांग्रेस के एक नेता भादू शेख की हत्या के बाद करीब एक सैकड़ों बाइक सवार हथियारबंद आततायी रामपुरहाट पहुंचे और घरों के दरवाजे बाहर से बंद कर आग लगा दी, जिसमें दस लोग जिंदा जलकर राख हो गए। जब राज्य सरकार उचित कानूनी कार्रवाई करती नहीं दिखी तब कलकत्ता हाईकोर्ट ने कठोर रुख अपनाते हुए मामले को स्व-संज्ञान में लिया और चौबीस घंटे में घटना की रिपोर्ट मांगी।
साथ ही अग्निकांड में घायल एक नाबालिग सहित अन्य घायलों की सुरक्षा तय करने की हिदायत दी, ताकि इन चश्मदीद गवाहों के बयान दर्ज किए जा सकें। उपचार, सुरक्षा और मृतकों के शवों के वीडियो रिकॉर्डिंग भी कराए जाने के निर्देश दिए गए हैं। चूंकि निर्दोष महिला और बच्चे भी इस नरसंहार में मारे गए हैं, लिहाजा राष्ट्रीय महिला आयोग और राष्ट्रीय बाल अधिकार संगठन आयोग भी सक्रिय हुए और पुलिस से कानूनी कार्रवाई की रिपोर्ट तलब की है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी इस घटना पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए राज्य सरकार को हर प्रकार की मदद देने का भरोसा दिया है।
यह नरसंहार इतना वीभत्स था कि बंगाल के महाअधिवक्ता एनएस मुखर्जी को न्यायालय में कहना पड़ा कि ‘ऐसी दुर्लभतम घटना पर मैं राज्य का नागरिक होने पर शर्मिंदा हूं। अतएव मैं उस गांव का निवासी होता तो कुछ दिनों के लिए पलायन कर जाता।‘ हिंसा में मारे गए लोगों के परिजनों का कहना है कि रामपुरहाट के तृणमूल कांग्रेस अध्यक्ष अनारूल हुसैन के उकसाने पर इस वारदात को अंजाम दिया गया है। पीड़ित और हत्यारों के नाम उजागर होने पर भाजपा की बंगाल राज्य सचिव लॉकेट चटर्जी ने कहा है ‘अब बंगाल कश्मीर की राह पर चल रहा है। यदि यही हालात रहे तो बंगाल कश्मीर में बदल जाएगा। अतएव इस मामले की सीबीआई और एनआईए से जांच अनिवार्य है।‘ प्रदेश भाजपा अध्यक्ष सुकांत मजूमदार की मानें तो इस राज्य में एक सप्ताह के भीतर 26 लोगों की हत्याएं हुई हैं, जिनमें राजनेता भी शामिल हैं। साफ है, बीरभूम की घटना और अन्य घटनाओं की पृष्ठभूमि में राजनीतिक एवं सांप्रदायिक संघर्ष अंतरनिर्हित है।
दरअसल यह घटना विधानसभा के चुनाव के समय और उसके बाद हुई हिंसक घटनाओं की कड़ी का ही एक हिस्सा है। पिछले साल हुए विधानसभा चुनाव के परिणाम आने के बाद भी प्रदेश में जगह-जगह हिंसा भड़की थी, जिनमें 16 लोग मारे गए थे। इसलिए यह आशंका भी जताई जा रही है कि हिंसा की यह इबारत चुनावी प्रतिक्रिया स्वरूप लिखी गई है। यह असहिष्णुता पंचायत, निकाय, विधानसभा और लोकसभा चुनावों में एक स्थाई चरित्र के रूप में मौजूद रहती है। विडंबना ही कहा जाएगा कि जब हिंसा और अराजकता के लिए बदनाम राज्य बिहार और उत्तर प्रदेश इस हिंसा से मुक्त हो रहे हैं, तब बंगाल और केरल में यह हिंसा बेलगाम होकर सांप्रदायिक रूप में दिखाई दे रही है। याद रहे इसी कड़ी में भाजपा विधायक देवेंद्रनाथ राय की हत्या कर लाश सार्वजनिक स्थल पर टांग दी गई थी। देवेंद्रनाथ माकपा से भाजपा में शामिल हुए थे। बंगाल में वामदल अर्से से खूनी हिंसा के पर्याय बने हुए हैं। इन हिंसक वारदातों से पता चलता है कि बंगाल पुलिस तृणमूल कांग्रेस की कठपुतली बनी हुई है।
दरअसल बंगाल ने हिंसा को राजनीतिक-सांस्कृतिक परंपरा मान लिया है। यह हिंसा राष्ट्रवादी क्रांतिकारियों ने जहां अंग्रेजों से मुक्ति के लिए अंजाम तक पहुंचाई वहीं चारू मजूमदार और कानून सान्याल जैसे नक्सलवादियों ने इसे समतामूलक हितों के लिए अपनाया था, किंतु बाद में यह आर्थिक हित साधने और राष्ट्रविरोधी गतिविधियों से जुड़ गई। देश में हिंसा भड़काने के लिए नक्सलवादियों को बांग्लादेश और चीन से धन व हथियारों की मदद मिलती रही है। पश्चिम बंगाल में जब बांग्लादेशी मुस्लिमों की घुसपैठ बढ़ गई और इनका कांग्रेस, वामपंथ और तृणमूल कार्यकर्ताओं के रूप में राजनीतिकरण हो गया, तब ये राजनीतिक गुटों की शत्रुता को सांप्रदायिक हिंसा में बदलने लग गए। जहां-जहां इन घुसपैठियों का संख्या बल बढ़ता गया, वहां-वहां इन्होंने स्थानीय मूल हिंदू बंगालियों की संपत्ति हड़पकर उन्हें बेदखल करना शुरू कर दिया।
बंगाल में हिंसा बढ़ते जाने का यह प्रमुख कारण है, जिसे वोट बैंक की तुष्टिकरण की राजनीति के चलते कांग्रेस, वामपंथी और तृणमूल नजरअंदाज करती रही हैं। यही कारण है कि माँ, माटी और मानुष जैसा राष्ट्रवादी नारा लगाने वाली ममता भी इस तरह की सांप्रदायिक हिंसा से जुड़ी वारदातों पर पर्दा डालने की कोशिश करती रही हैं। मानवाधिकार और कथित धर्मनिरपेक्षता के पैरोकार भी ऐसे मुद्दों पर होठ सिल लेते हैं। वामदलों के साढ़े तीन दशक चले शासन में राजनीतिक हिंसा की खूनी इबारतें निरंतर लिखी जाती रही थीं। वामपंथी मार्क्सवादी विचारधारा विरोधी विचार को तरजीह देने के बजाय उसे जड़ से खत्म करने में विश्वास रखती हैं। ममता बनर्जी जब सत्ता पर काबिज हुई थीं, तब यह उम्मीद जगी थी कि बंगाल में लाल रंग का दिखना अब समाप्त हो जाएगा। लेकिन धीरे-धीरे तृणमूल कांग्रेस वामदलों के नए संस्करण में बदलती चली गई।
हिंसा की इस राजनीतिक संस्कृति की पड़ताल करें तो पता चलता है कि 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का पहला सैनिक विद्रोह इसी बंगाल के कलकत्ता एवं बैरकपुर में हुआ था, जो मंगल पाण्डे की शहादत के बाद 1947 में भारत की आजादी का कारण बना। बंगाल में जब मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर राय के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार थी, तब सामाजिक व आर्थिक विषमताओं के विद्रोह स्वरूप नक्सलवाड़ी आंदोलन उपजा। लंबे समय तक चले इस आंदोलन को कुचला गया। हजारों दोषियों के दमन के साथ कुछ निर्दोष भी मारे गए। इसके बाद कांग्रेस से सत्ता हथियाने के लिए भारतीय मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में वाममोर्चा आगे आया। इस लड़ाई में भी विकट खूनी संघर्ष सामने आया और आपातकाल के बाद 1977 में हुए चुनाव में वामदलों ने कांग्रेस के हाथ से सत्ता छीन ली। लगातार 34 साल तक बंगाल में मार्क्सवादियों का शासन रहा। इस दौरान सियासी हिंसा का दौर नियमित चलता रहा। तृणमूल सरकार द्वारा जारी सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 1977 से 2007 के कालखंड में 28 हजार राजनीतिक कार्यकर्ताओं और नेताओं की हत्या हुई।
सर्वहारा और किसान की पैरवी करने वाले वाममोर्चा ने जब सिंगूर और नंदीग्राम के किसानों की खेती की जमीनें उद्योगपतियों को दीं तो इस जमीन पर अपने हक के लिए उठ खड़े हुए किसानों के साथ ममता बनर्जी आ खड़ी हुईं। ममता कांग्रेस की पाठशाला में ही पढ़ी थीं। जब कांग्रेस उनके कड़े तेवर झेलने और संघर्ष में साथ देने से बचती दिखी तो उन्होंने कांग्रेस से पल्ला झाड़ा और तृणमूल कांग्रेस को अस्तित्व में लाकर वामदलों से भिड़ गईं। इस दौरान उन पर कई जानलेवा हमले हुए लेकिन उन्होंने अपने कदम पीछे नहीं खींचे। जबकि 2001 से लेकर 2010 तक 256 लोग सियासी हिंसा में मारे गए। यह काल ममता के रचनात्मक संघर्ष का चरम था। इसके बाद 2011 में बंगाल में विधानसभा चुनाव हुए और ममता ने वाम मोर्चा का लाल झंडा उतारकर तृणमूल की विजय पताका फहरा दी। इस साल भी 38 लोग मारे गए। ममता बनर्जी के कार्यकाल में भी राजनीतिक लोगों की हत्याओं का दौर बरकरार रहा। इस दौर में 58 लोग मौत के घाट उतारे गए।
बंगाल की माटी पर एकाएक उदय हुई भाजपा ने ममता के वजूद को संकट में डाल दिया है। बंगाल में करीब 27 फीसदी मुस्लिम मतदाता हैं। इनमें 90 फीसदी तृणमूल के खाते में जाते हैं। इसे तृणमूल का पुख्ता वोट बैंक मानते हुए ममता ने अपनी ताकत मोदी व भाजपा विरोधी छवि स्थापित करने में खर्च दी है। इसमें मुस्लिमों को भाजपा का डर दिखाने का संदेश भी छिपा है। किंतु इस क्रिया की विपरीत प्रतिक्रया हिंदुओं में स्व-स्फूर्त ध्रुवीकरण के रूप में दिखाई देने लगी। बांग्लादेशी मुस्लिम घुसपैठिए एनआरसी लागू होने के बाद भाजपा को अपने वजूद के लिए खतरा मानकर चल रहे हैं, नतीजतन बंगाल के विधानसभा चुनाव में हिंसा का उबाल देखने में आया था।
दरअसल यही लोग ममता की निजी सेना के वे असामाजिक और अराजक तत्व हैं, जिन्हें सरकारी सरंक्षण देकर तृणमूल कांग्रेस इस मुस्लिम वोट बैंक के जरिए बहुमत तक पहुंचने का जनाधार मान रही हैं। किंतु कानून व्यवस्था से यह खिलवाड़, राष्ट्रहित के लिए़ किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)