Special Article : देश को एकता के सूत्र में पिरोती है हिंदी

हिंदी एक समृद्ध, वैज्ञानिक और विकासशील भाषा है। एक भाषा के रूप में हिंदी न सिर्फ भारत की पहचान है बल्कि यह हमारे जीवन मूल्यों, संस्कृति एवं संस्कारों की सच्ची संवाहक, संप्रेषक और परिचायक भी है। बहुत सरल, सहज और सुगम भाषा होने के साथ हिंदी विश्व की संभवतः सबसे वैज्ञानिक भाषा है जिसे दुनिया भर में समझने, बोलने और चाहने वाले लोग बहुत बड़ी संख्या में मौजूद हैं। यह विश्व में तीसरी सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है जो हमारे पारम्‍परिक ज्ञान, प्राचीन सभ्‍यता और आधुनिक प्रगति के बीच एक सेतु भी है।

अन्तरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के अवसर पर जारी वर्ल्ड लैंग्वेज डेटाबेस के 22 वें संस्करण इथोनोलॉज के मुताबिक दुनिया भर की 20 सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषाओं में 6 भारतीय भाषाएं शामिल हैं, जिनमें हिन्दी तीसरे स्थान पर है। हिंदी भारत संघ की राजभाषा होने के साथ ही ग्यारह राज्यों और तीन संघ शासित क्षेत्रों की भी प्रमुख राजभाषा है। देश की स्‍वतंत्रता से लेकर हिन्‍दी ने कई महत्‍वपूर्ण उपलब्धियां प्राप्‍त की हैं। भारतीय विचार और संस्‍कृति का वाहक होने का श्रेय हिन्‍दी को ही जाता है।

आज संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्थाओं में भी हिंदी की गूंज सुनाई देने लगी है। हिंदी आम आदमी की भाषा के रूप में देश की एकता का सूत्र है। हिंदी के महत्त्व को गुरुदेव रवीन्द्र नाथ ठाकुर ने बड़े सुंदर रूप में प्रस्तुत किया था। उन्होंने कहा था, ‘भारतीय भाषाएं नदियां हैं और हिंदी महानदी’। ठाकुर ने यह इसलिए कहा था क्योंकि उन्हें हिंदी के महत्व का बोध था। वह हिंदी जो राष्ट्र के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान स्वतंत्रता सेनानियों के बीच सम्पर्क का प्रमुख माध्यम रही। वह हिंदी जो विविधता में एकता का सूत्र रही। जो देश के ज्यादातर भागों में अधिकांश लोगों द्वारा सबसे अधिक बोली-समझी जाती रही है और देश के सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, साम्प्रदायिक एवं भाषायी समन्वय व सौहार्द का प्रतीक है।

भारतीय भाषाओं और हिंदी के संबंध की दृष्टि से संविधान की धारा 351 अत्यंत महत्वपूर्ण है जिसमें हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में सौहार्द और सामंजस्य की अपेक्षा की गई है, “संघ हिंदी के प्रसार के लिए प्रयत्न करेगा और हिंदी को इस प्रकार विकसित करेगा कि वह देश की मिलीजुली संस्कृति को अभिव्यक्त कर सके। संघ से यह भी अपेक्षा है कि वह हिंदी को समृद्ध बनाने के लिए संस्कृत, हिन्दुस्तानी और अन्य भारतीय भाषाओं के मध्य सतत संवाद को प्रोत्साहन देगा। जहां तक संभव हो भारतीय भाषाओं के शब्द, मुहावरे, लोकोक्तियों से हिंदी को समृद्ध किया जायेगा।”

हिंदी के इसी महत्व को देखते हुए तकनीकी कंपनियां इस भाषा को बढ़ावा देने की कोशिश कर रही हैं। यह खुशी की बात है कि सूचना प्रौद्योगिकी में हिन्‍दी का इस्‍तेमाल बढ़ रहा है। आज वैश्वीकरण के दौर में, हिंदी विश्व स्तर पर एक प्रभावशाली भाषा बनकर उभरी है। आज पूरी दुनिया में 175 से अधिक विश्वविद्यालयों में हिन्दी भाषा पढ़ाई जा रही है। ज्ञान-विज्ञान की पुस्तकें बड़े पैमाने पर हिंदी में लिखी जा रही है। सोशल मीडिया और संचार माध्यमों में हिंदी का प्रयोग निरंतर बढ़ रहा है।

हमारे दूरदर्शी नेताओं ने एक स्वर से हिन्दी को इस पद पर प्रतिष्ठित किया। गांधीजी, नेहरूजी, राजगोपालचारी, मौलाना अबुलकलाम आजाद, गोविन्द वल्लभ पन्त आदि ने हिन्दी को ही यह सम्मान देने का वकालत की। हिंदी के ही नहीं अहिंदी भाषियों ने भी हिंदी में साहित्य रचा है। स्वाधीनता संघर्ष के दौरान ही भारतीय जनता यह चाहने लगी थी कि हमारा राष्ट्र स्वतंत्र हो और हमारा अपना खुद का शासन हो । तब उसके साथ-साथ अपनी भाषा को उचित स्थान देने के लिए भी वह जागृत होने लगी। पराधीन भारत में राष्ट्रभाषा की मर्म को समझते हुए भारतेंदु ने कहा था, “निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल, बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटत न हिय के सूल।” परंतु आजाद भारत में हिंदी राष्ट्रभाषा से राजभाषा में तब्दील हो गयी। महात्मा गांधी ने मध्यप्रदेश के इंदौर में हिंदी साहित्य समिति भवन की नींव रखते हुए इसे राष्ट्रभाषा बनाने का संकल्प लिया था। सुभाषचंद्र बोस की ‘आजाद हिंद फौज’ की राष्ट्रभाषा हिंदी ही थी।

श्री अरविंद घोष हिन्दी-प्रचार को स्वाधीनता संग्राम का एक अंग मानते थे। नागरी लिपि के प्रबल समर्थक न्यायमूर्ति श्री शारदाचरण मित्र ने तो ई. सन् 1910 में यहां तक कहा था – यद्यपि मैं बंगाली हूं तथापि इस वृद्धावस्था में मेरे लिए वह गौरव का दिन होगा जिस दिन मैं सारे भारतवासियों के साथ ‘साधु हिन्दी’ में वार्तालाप करूंगा। बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय और ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने भी हिंदी का समर्थन किया था।

इन अहिन्दी-भाषी-मनीषियों में राष्ट्रभाषा के एक सच्चे एवं सबल समर्थक हमारे पोरबंदर के निवासी साबरमती संत राष्ट्रपिता महात्मा गांधी थे। हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को इस बात का अत्यधिक सदमा था कि भारत जैसे बड़े और महान राष्ट्र की कोई राष्ट्रभाषा नहीं है। अत: राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने विखंडित पड़े संपूर्ण भारत को एकसूत्र में बांधने के लिए, उसे संगठित करने के लिए एक राष्ट्रभाषा की आवश्यकता का अहसास करते हुए कहा था, “राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र गूंगा है।” उन्होंने भारत वर्ष के इस गूंगेपन को दूर करने के लिए भारत के अधिकतम राज्यों में बोली एवं समझी जाने वाली हिन्दी भाषा को उपयुक्त पाकर संपूर्ण भारत की राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित, स्थापित किया। आवश्यकता है हमें कि हम अपने स्वतंत्रता सेनानियो की बदनामी ना करें तथा उनके दिखाए गए पथ के अनुसार हिंदी को राष्ट्रभाषा बनने में सहयोग करें।

– निरंजन अग्रवाल

(लेखक एन. के. 7 के समूह के निदेशक, समर्पण ट्रस्ट के ट्रस्टी तथा समाज सेवी हैं।)

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

23 − = 14